________________
लब्धिसार
माथा १८६-१६० ] लब्धिसार
[ १५७ प्रथानन्तर सकलचारित्रकी प्ररूपणा करने हेतु अगला सूत्र कहते हैंसयलचरित्तं तिविहं खयउवसमि उवसमं च खइयं च । सम्मत्तुप्पत्तिं वा उवसमसम्मेण गिरहदो पढमं ॥१८॥
अर्थ-क्षयोपशम, उपशम और क्षायिकके भेदसे सकलचारित्र तीनप्रकारका है। उपशमसम्यक्त्व सहित जो क्षयोपशमचारित्रका ग्रहण होता है, उसका विधान प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समान है।
विशेषार्थ-प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति मिथ्यात्व पूर्वक होती है' । अतः मिथ्यादष्टिजीव प्रथमोपशमसम्यक्त्व सहित सकलचारित्रको ग्रहण करता है तो वह क्षयोपशमचारित्रको ही अप्रमत्तगुणस्थानसहित ग्रहण करता है। क्षायोपशमिकचारित्र प्रमत्त व अप्रमत्तसयत इन दो गुणस्थानोमे ही होता है, क्योकि ऊपरके गुणस्थान उपशम या क्षपकश्रेरिणमे ही होते है और उनमे उपशम या क्षायिकचारित्र होता है । प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि उपशम या क्षपकवेगिग पर आरोहण नही कर सकता अत उसके अप्रमत्तगुणस्थानसे ऊपरके गुणस्थान सम्भव नही है । सकलचारित्र सहित प्रथमोपशमसम्यक्त्व को ग्रहण करनेवाले मनुष्यके करणलब्धिमे इतने अधिक विशुद्ध परिणाम हो जाते है कि वह अप्रमत्तगुणस्थानमे ही जाता है, पुनः गिरकर प्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त होता है ।
आगे वेदकसम्यक्त्वके योग्य मिथ्यात्वो प्रादि जीवके सकलसंयम ग्रहण करते समय होने वाली प्रक्रिया विशेष को बताते हैं
वेदगजोगो मिच्छो अविरददेसो य दोषिण करणेण । देसवदं वा गिरहदि गुणसेढी णस्थि तक्करणे ॥१०॥
अर्थ-वेदकसम्यक्त्वसहित क्षयोपशमचारित्रको मिथ्यादृष्टि या असयत अथवा देशसयतजीव देशचारित्र ग्रहण करनेके सदृश ही अध प्रवृत्तकरण व अपूर्वकरण, इन दो करणोके द्वारा ग्रहण करता है। उन करणोमे गुणश्रेरिण नही होती है, किन्तु सकलसंयमके ग्रहण समयसे गुणश्रेणि होती है।
१. घ. पु. १ पृ. ४१०, ध. पु ६ पृ २०६-७ ।