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लब्धिसार
[ गाथा १८७ १५४ ]
विशेषार्थ-सबसे जघन्य लब्धिस्थानसे लेकर ऊपर असख्यातलोकप्रमाण प्रतिपात स्थान मनुष्योके योग्य ही होकर तबतक जाते है जबकि तत्प्रायोग्य असंख्यातलोकप्रमाण पस्थानोको उल्लघन कर तिर्यंचोंके योग्य जघन्य प्रतिपातस्थान उत्पन्न होता है । वहासे लेकर तिर्यच और मनुष्य दोनोंके साधारणरूपसे पाये जानेवाले असख्यातलोकप्रमाण प्रतिपातस्थानोके जाने पर उस स्थान पर तिर्यंचसम्बन्धी उत्कृष्ट प्रतिपातस्थानकी व्युच्छित्ति हो जाती है। तत्पश्चात् पुन' असंख्यातलोकप्रमाण स्थानं आगे जाकर इस स्थान पर मनुष्यसम्बन्धी उत्कृष्ट प्रतिपांतस्थान विच्छिन्न होता है । इसके वाद असख्यातलोकप्रमाण अन्तर होकर पुन. मनुष्य संयतासंयंत का जघन्य प्रतिपद्यमान स्थान होता है । तत्पश्चात् असख्यातलोकप्रमाण स्थान जाकर तिर्यंच सयतासयतका जघन्य प्रतिपद्यमान स्थान होता है। वहा से लेकर दोनोके ही समानरूपसे असख्यातलोकप्रमाण स्थान ऊपर जाकर वहां तिर्यंच सयतासयत के उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान स्थानकी व्युच्छित्ति हो जाती है। उससे ऊपर भी असख्यातलोकप्रमाण स्थान जाकर मनुप्योका उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान स्थान विच्छिन्न हो जाता है । तत्पश्चात् असख्यातलोकप्रमाण अन्तर होकर पुन' मनुष्य सयतासयतके जघन्य अनुभयस्थान होता है। उसके वाद अंसख्यातलोकप्रमाण स्थान ऊपर जाकर तिर्यंच सयतासयतके जघन्य अनुभयस्थान होता है। तत्पश्चात् दोनों के ही साधारण असख्यातलोकप्रमाण स्थान ऊपर जाकर तिर्यच सयतासयतके उत्कृष्ट अनुभयस्थान विच्छिन्नं हो जाता है । तत्पश्चात् फिर भी असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपरं जाकर मनुष्य संयतासंयतका उत्कृष्ट अनुभयस्थान उत्पन्न होता है।
यहा पर प्रतिपातस्थान अधस्तन गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले अन्तिमसमय वाले देशसयतके होते हैं। प्रतिपद्यमानस्थान देशसयमको ग्रहण करनेके प्रथमसमयमें होता है । उपर्युक्त अन्तिम और प्रथम समयको छोडकर शेष समस्त मध्यम अवस्थाके योग्य स्वस्थान सम्बन्धी और उपरिम गुणस्थानके अभिमुख हुए स्थान अनुभयस्थान है । इन तीनो स्थानोकी सदृष्टि इसप्रकार है
००००००००००००००००००००००००००००००००००००० प्रतिपात लब्धि स्थान । अन्तर । ००००००००००००००००००००००००००००००००००० ०००० प्रतिपद्यमान लब्धि स्थान । अन्तर । ०००००००००००००००००००००००० ००००००००००००००००००० अनुभय-लब्धि स्थान । १. प. पु. ६ पृ. २७७; ज.ध.पु १३ पृ. १४८ ।