________________
लब्धिसार
[ गाथा १८५-१८६ १५२ ]
जघन्य देशसंयमके अविभागी प्रतिच्छेदों के प्रमाणका कथन करते हुए देशसंयमके मेदों व उसमें अन्तरका कथन करते हैं
अवरे देसट्ठाणे होंति अणंताणि फड्डयाणि तदो। छट्ठाणगदा सव्वे लोयाणमसंखछट्ठाणा ॥१८५॥ तत्थ य पडिवायगदा पडिवच्चगदात्ति अणुभयगदात्ति ।
उवरुवरिलद्धिठाणा लोयाणमसंखछट्ठाणा ॥१८६॥
अर्थ-सर्व जघन्य देशसयमलब्धिस्थानमे अनन्त स्पर्धक होते है । षट्स्थानपतित वृद्धियोके द्वारा असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित सर्व लब्धिस्थान होते है ।।१८।।'
देशसयमलब्धिस्थान तीन प्रकारके हैं- १. प्रतिपातगत २. प्रतिपाद्यमानगत ३ अनुभयगत। ये लब्धिस्थान उपर्युपरि होते हुए असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित है ॥१८६ ।।
विशेषार्थ-यह जघन्य देशसयमलब्धिस्थान सब जीवोसे अनन्तगुणे अनन्त अविभागी प्रतिच्छेदोसे निष्पन्न हुआ है । ये ही अनन्त अविभागीप्रतिच्छेद अनन्तस्पर्धक कहे जाते हैं, क्योकि यहां पर स्पर्धक शब्द अविभागप्रतिच्छेदोका वाची स्वीकार किया गया है । अथवा यह जघन्य लब्धिस्थान मिथ्यात्वमे गिरनेके सम्मुख हुए सयतासयतके अन्तिम समयमे कषायोके अनन्त अनुभाग स्पर्धकोके उदयसे उत्पन्न हुआ है, इसप्रकार कार्यमे कारण के उपचारसे "अनन्तस्पर्धक" कहे गये है।
जघन्य लब्धिस्थानको सर्व जीवराशिप्रमाण भागहारसे भाजितकर वहा प्राप्त एक भागको मिलानेपर जघन्य देशसयमलब्धिस्थानसे अनन्तवाभाग अधिक होकर दूसरा लब्धिस्थान उत्पन्न होता है । जघन्य लब्धिस्थानसे अगुलके संख्यातवेभागप्रमाण अनतभागवृद्धि-काडक जाकर असख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। तत्पश्चात् असख्यातभागवृद्धिकाण्डक जाकर सख्यातभागवृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् सख्यातभागवृद्धिकांडक जाकर सख्यातगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। तत्पश्चात् सख्यातगुणवृद्धिकांडक जाकर असख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है। तत्पश्चात् असख्यातगुणवृद्धि जाकर अनन्तगुणवृद्धिस्थान होता है तब कषायोदयस्थान अनन्तगुणा हीन होता है, क्योकि अनन्तगुणेहीन १. घ पु. ६ पृ २७६ दूसरा पेरा।