________________
गाथा १८७ ] लब्धिसार
[ १५३ कषायोदय स्थानोके बिना अनन्तगुणस्वरूप देशसयमलब्धिस्थानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । यह एक षट्स्थान है । इसप्रकार असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान प्रतिपातस्थान है। इन प्रतिपात लब्धिस्थानोका उल्लघनकर असख्यातलोकप्रमाण षटस्थानपतित प्रतिपद्यमान स्थान है। ये पिछले स्थानोसे असख्यातगुरणे स्थानस्वरूप है। उससे भी असख्यातगुणे अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान स्थानोके योग्य असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतितस्थान होते है जो तदनन्तर समयमे सयमको ग्रहण करनेवाले जीवके लब्धिस्थानोके समाप्त होने तक पाये जाते है । प्रतिपात आदि तीनप्रकारके ये सब षट्स्थानपतित देशसयमलब्धिस्थान असख्यातलोकप्रमाण है' । . जिस स्थानके होने पर यह जीव मिथ्यात्वको या असयमको प्राप्त होता है वह प्रतिपातस्थान कहा जाता है । जिस स्थानके होनेपर यह जीव सयमासयमको प्राप्त होता है वह प्रतिपद्यमान स्थान कहलाता है । स्वस्थानमे अवस्थानके योग्य और उपरिम गणस्थानके अभिमुख हुए जीवके स्थान ये सब शेष लब्धिस्थान अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमानस्वरूप अनुभय स्थान हैं ।
अथानन्तर देशसंयमके जघन्य व उत्कृष्ट रूप से उक्त भेद कौन किसमें हैं इसका स्पष्टीकरण करते हैं
णरतिरिये तिरियणरे अवरं अवरं वरं वरं तिसुवि । . लोयाणमसंखेज्जा छट्ठाणा होति तम्मज्झे ॥१८७॥ .
अर्थ-उन प्रतिपात, प्रतिपद्यमान व अनुभय इन तीनो देशसयम लब्धिस्थानों मे प्रथम मनुष्य योग्य जघन्यस्थान होता है । पुन तिर्यच योग्य जघन्य स्थान होता है । तत्पश्चात् तिर्यंचयोग्य उत्कृष्टस्थान होता है उसके पश्चात् मनुष्ययोग्य उत्कृष्ट स्थान होता है । उनके मध्यमे असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित स्थान होते है।
१ २
ज.ध. पु १३ पृ १४३-१४६ । .. . ज. ध पु १३ पृ. १४२ । सयमासंयम से गिरने के अन्तिम समयमे होने वाले स्थानोको प्रतिपातस्थान कहते हैं । संयमासंयमको धारण करनेके प्रथम समयमे होने वाले स्थानो को प्रतिपद्यमान स्थान कहते हैं। इन दोनो स्थानो को छोडकर मध्यवर्ती समयोमे सम्भव समस्त स्थानोको अप्रतिपात अप्रतिपद्यमान या अनुभयस्थान कहते है । यह उक्त कथन का सरल शब्दोमे तात्पर्य है । (ध पु. ६ पृ. २७७, ज. प. पु. १३ प. १४८ आदि) , .