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गायो १८४ ]
लब्धिसार कोडाकोडीप्रमाण जघन्य स्थितिबन्धका ग्रहण है ॥१५॥ उससे अपूर्वकरणके प्रथम समयमें होनेवाला स्थितिबन्ध सख्यातगुणा ।।१६।। उससे एकान्तानुवृद्धिकालके अन्तिम समयमे होनेवाला जघन्य स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा है ॥१७॥ उससे अपूर्वकरणके प्रथम समयमे घातके बिना प्राप्त अन्तःकोडाकोड़ीप्रमाण उत्कृष्ट सत्कर्म संख्यातगुणा है' ।। १८ ।। ( गा १८३ )
देशसंयमकी जघन्य व उत्कृष्टलब्धिके साथ उसके अल्पबहुत्वका कथन करते हैं
अवरवरदेसलद्धी सेकाले मिच्छसंजसुववरणे । अवरादु अणंतगुणा उक्कस्सा देसलद्धी हूँ ॥१८४॥
अर्थ-मिथ्यात्वके सम्मुख जीवके देशसंयमकी जघन्यलब्धि होती है और संयमके अभिमुख जीवके देशसंयमकी उत्कृष्टलब्धि होती है, जघन्यसे उत्कृष्ट देशसंयमलब्धि अनन्तगुणी है।
विशेषार्थ-संयतासयतजीव कषायोके तीव्र अनुभागके उदयसे संक्लिष्ट होकर अनन्तर समयमे मिथ्यात्वको प्राप्त होगा, उस अन्तिम समयवर्ती देशसंयतके जघन्य देशसंयमलब्धि होती है, क्योकि कषायोके तीन अनुभागोदयसे उत्पन्न हुए सक्लेशसे अोतप्रोत देशसयम लब्धिके संबसे जघन्यपनेके प्रति विरोध नही पाया जाता । जो देशसंयत सर्वविशुद्ध होकर सयमके अभिमुख हुआ है, अन्तिम समयवर्ती उस देशसंयतके उत्कृष्ट देशसयमलब्धि होती है, क्योंकि प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होनेवाले सयमके अभिमुख हुए जीवके द्विचरम समयमे उदीर्ण हुए कषायों सम्बन्धी अनुभागस्पर्द्धको से अनन्तगुणे हीन अन्तिम समयसम्बन्धी उदीर्ण हुए स्पर्धकों के द्वारा उत्पन्न हुई अन्तिम विशुद्धि अर्थात् चरमसमयकी देशसयमलब्धिके सर्वोत्कृष्टपनेके प्रति विरोध का अभाव है । जघन्य देशसयमलंब्धि से उत्कृष्ट देशसयमलब्धि अनन्तगुणी है, क्योकि पूर्व के जघन्य लब्धिस्थानसे असख्यात लोकप्रमाण छह स्थानों को उल्लंघकर उत्कृष्ट देशसयम लब्धिस्थानको उत्पत्ति होती है ।
१. ज.ध.पु. १३ पृ. १३३ से १३७ तक, ध पु. ६ पृ. २७४-२७५, क. पा. सु. ६३४-३५ । २. क. पा सु पृ. ६६६ सूत्र ५५-५६ । ३. ज.ध. पु. १३ पृ १४०-१४१ ।