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लब्धिसार
[ गाथा १७६
वाले के तत्प्रायोग्य विशुद्धिके सम्बन्धविना करण परिणामोका होना असम्भव है । तीव्र विराधना के कारणभूत बाह्यपदार्थोका सम्पर्क हुए विना तत्प्रायोग्य सक्लेश परिणामोसे युक्त अन्तरङ्ग कारण के द्वारा जीवादि पदार्थोको दूषित न कर ग्रधस्तन गुणस्थानमे जाकर फिर भी बाह्यकारण निरपेक्ष तत्प्रायोग्य विशुद्धिके साथ मन्द सवेगरूप परिणामोके द्वारा देशसंयम को ग्रहण करनेवाले के अनुभागकाण्डक घात, स्थितिकाण्डकघात व करण नही होते ।
यदि कोई जीव संक्लेशकी बहुलता से संयतासंयतसे मिथ्यात्वरूपी पातालमे गिरकर फिर भी अन्तर्मुहूर्त काल से या 'वेदक प्रायोग्यभाव नष्ट नही हुआ है' ऐसे विप्रकृष्टकालसे विशुद्धिको पूरकर सयमासयम को प्राप्त होता है तो उसके दो करण होते है, अन्यथा बढाई गई स्थिति और अनुभागका घात नही वन सकता' ।
आगेको गाथामें अथाप्रवृत्तसंयत के गुणश्रेणि द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैं-देसो समये समये सुमंतो संकिलिस्समाणो य । चडिहाणिदव्वादवट्टिदं कुणदि गुणसेटिं ॥ १७६ ॥
अर्थ - अध' प्रवृत्त देशसयतके सर्वकालमे विशुद्धि या संक्लेशको प्राप्त होने पर भी प्रति समय यथा सम्भव चतु स्थानपतित वृद्धि-हानि को लिये गुणश्रेणि विधान होता है ।
विशेषार्थ- -- जबतक देशसंयत रहता है तबतक प्रतिसमय असंख्यात समयप्रबद्धोका अपकर्षणकर गुरणश्रेणि निर्जरा करता है, क्योकि जबतक सयमासंयम गुरण नष्ट नही होता तबतक संयमासयम निमित्तक गुणश्रेणि निर्जराकी प्रवृत्ति में कोई बाधा नही है । इसलिये सयतासयत गुणश्रेणि निर्जराका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है, किन्तु विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ उक्त जीव प्रतिसमय असख्यातगुणे सख्यातगुणे, सख्यातभाग अधिक या असंख्यातभाग अधिक प्रदेशपुञ्जका गुणश्रेणिमें निक्षेप करता है तथा सक्लेशको प्राप्त हुआ उक्त जीव इसीप्रकार असख्यातगुणे होन, सख्यातगुणे हीन, संख्यातभाग हीन या असंख्यात भागहीन प्रदेशपु ज
१. ज घ पु. १३ पृ १२४, १२५, १२६, १३१ व १३२ ।
२.
घ पु८ पृ८३, जंघ पु १३ पृ. १२६, गो जी गा. ४७६, घ. पु. १ पृ. ३७३, प्रा पं. सं . १ गा. १३५ ।