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गाथा १५६-१६३ ]
लब्धिसार सम्मे असंखवस्लिय चरिमढिदिखंडओ असंखगुणो। मिस्से चरिमे खंडियमहियं अडवस्समेत्तेण ॥१५६॥ मिच्छे खवदे सम्मदुगाणं ताणं च मिच्छसत्तं हि । पढमंतिमठिदिखंडा असंखगुणिदा हु दुट्ठाणे ॥१५७।। मिच्छंतिमठिदिखंडो पल्लासंखेज्जभागमेत्तेण । हेट्ठिमठिदिप्पमाणेणभिहियो होदि णियमेण ॥१५८॥ दूरावकिठ्ठिपढमं ठिदिखंडं संखसंगुणं तिण्णं । दूरावकिठ्ठिहेठिदिखंडं संखसंगुणियं ॥१५६।। पलिदोवमसंतादो विदियो पल्लस्स हेदुगो जादु । अवरो अपुठवपढमे ठिदिखंडो संखगुणिदकमा ॥१६॥ पलिदोवमसंतादो पढमो ठिदिखंडो दु संखगुणो । पलिदोवमठि दिसंतं होदि विसेसाहियं तत्तो ॥१६१॥ विदियकरणस्स पढमे ठिदिखंड विसेसयं तु तदियस्त । करणस्स पढमसमये दंसणमोहस्स ठिदिसंतं ॥१६२।। दसणमोहणाणं बंधो संतो य अवर वरगो य । संखेये गुणिदकमा तेत्तीसा एत्थ पदसंखा ॥१६३॥
गाथार्थ व विशेषार्थ-सर्वप्रथम दर्शनमोहनीयका आठवर्ष प्रमाण स्थिति सत्कर्म रहने पर जो पहले का अनुभागकाण्डक है उसका उत्कीरण काल सबसे स्तोक है । ऊपर कहे जाने वाले सभी पदों से स्तोकतर है, किन्तु कृतकृत्यवेदक होनेके प्रथम मे ज्ञानावरणादि शेष कर्मोका जो पहलेका अनुभागकाण्डक, अनिवृत्तिकरणकी अन्तिम अवस्थामे उसका उत्कीरणकाल सबसे जघन्य (स्तोक) है, क्योकि उससे आगे कृतकृत्यवेदककालके भीतर स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात आदि क्रियाओकी प्रवृत्ति नहीं होती। अतः सबसे उत्कृष्ट विशुद्धि निमित्तक यह सबसे जघन्य है, यह सिद्ध हुआ' । (१) १ ज ध पु १३ पृ. ६१ ।