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गाय! १६४-१६६ ] लब्धिसार
[ १४१ उनसे सख्यातगुणा कृतकृत्यवेदकका प्रथम समयमें दर्शनमोहनीयके बिना शेष कोका जघन्य स्थितिवन्ध है, क्योकि कृतकृत्यवेदकके प्रथम समयमे होनेवाला स्थितिवन्य अन्त कोडाकोडी सागर प्रमाण है ॥३०॥ उससे उन्हीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध गन्यातगुणा है, क्योकि अपूर्वकरण के प्रथम समयमे होनेवाला उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यहा ग्विक्षित है ।।३१।। उससे दर्शनमोहनीयके बिना शेष कर्मोका जघन्य स्थितिसत्कर्म मन्यातगुगा है, क्योकि चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके अतिरिक्त अन्यत्र सम्यग्दृष्टियोके उत्कृष्ट स्थितिवन्धसे भी जंघन्य स्थितिसत्कर्म नियमसे सख्यात्तगुणा होता है ॥३२॥ उगने उन्हीका उत्कृप्ट स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा है, क्योकि अपूर्वकरणके प्रथम समयमें नभी फर्मोका अन्त कोडाकोडीप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म होता है। उसका अभी घात नहीं हुया है अत घात होकर शेष बचे हुए पूर्वके जघन्य स्थितिसत्कर्मसे इसके उक्तप्रकाररो सिद्ध होनेमे कोई बाधा नही आती है ।।३३।। (गाथा १६३)'
अव तीन गाथानों में क्षायिकसम्यक्त्वके कारण-गुण-भवसीमा-क्षायिकलब्धित्व आदिका कथन करते हैं
सत्तरहं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं । मेरु व णिप्पकंपं सुणिम्मलं अक्खयमणंतं ॥१६४॥ दंग्मणमोहे खविदे सिझदि तत्थेव तदियतुरियभवे । रणादिक्कति तुरियभवे ण विणस्सति सेससम्मे व ॥१६५।। सत्तरहं पयडीणं खयादु अवरं तु खइयलद्धी दु । उक्कस्सखइयलही घाइचउक्कखएण हवे ॥१६६॥
अयं-अनन्तानुवन्धी चतुष्क और दर्शनमोहनीय त्रिक इन सात प्रकृतियो के अपने लिगम्यक्त्व होता है सो मेरुके समान निष्कम्प अर्थात् निश्चल है, सुनिर्मल पर नादि मलने रहित है, अक्षय अर्थात् नाश से रहित है तथा अनन्त अर्थात्
गुन ६५ मे ६५७, धवल पु ६ पृ २६३ से २६६ ; ज घ.पु १३ पृ. ६१, से.१००। -12, पु? पृ १७२ प्रा प स पृ ३५।