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लब्धिसार
[ गाथा १७०-१७२ विशेषार्थ-मिथ्यादृष्टिजीव पहले ही अन्तर्मुहूर्त काल रहने पर स्वस्थानके योग्य प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा विशुद्धिको प्राप्त हुआ आयुकर्मको छोड़ कर सभी कर्मोके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्मको अन्त कोडाकोडीके भीतर करता है, क्योकि उस कालमे होनेवाले विशुद्धिरूप परिणाम उससे उपरिम स्थितिवन्ध और स्थितिसत्कर्मके विरुद्ध स्वभाववाले होते है और उनके उसप्रकारके हुए विना सयमासयमगुणकी प्राप्ति नही बन सकती । प्रकृत विशुद्धके निमित्तसे होनेवाला यह एक फल है। दूसरा फल यह है कि साता आदि शुभ कर्मोके अनुभागबन्ध और अनुभागसत्कर्मको चतु स्थानीय करता है, क्योकि उनका अनुभाग शुभपरिणामनिमित्तक होता है, परन्तु पाच ज्ञानावरणादि अशुभकर्मोके अनुभागबन्ध और अनुभागसत्कर्मको नियमसे द्विस्थानीय करता है, क्योकि विशुद्धिरूप परिणामोके निमित्तसे उन कर्मोके उससे ऊपरके अनुभाग का घात हो जाता है।
___ अब उपशमसम्यक्त्वके साथ देशसंयमको ग्रहण करनेवाले जीवका कार्य बतलाते हैं
मिच्छो देसचरितं उवसमसम्मेण गेरहमाणो हु । सम्मत्तुप्पत्तिं वा तिकरण चरिमम्हि गेरहदि हु ॥१७०॥
अर्थ-अनादि या सादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वसहित देशचारित्र ग्रहण करता है । सो वह दर्शनमोहके उपशम मे जो विधान कहा है उसी विधान द्वारा तीन करणोके अन्तिमसमयमे देशचारित्रको ग्रहण करता है । दर्शनमोहके उपशमकालमें जो प्रकृति-स्थितिबन्धापसरण, स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य कहे गये हैं वे सभी कार्य यहा भी करता है कुछ भी विशेषता नही है ।
अथानन्तर दो गाथाओं से मिथ्यादष्टि जीवके वेदकसम्यक्त्वके साथ देश चारित्रके ग्रहणके समय होनेवाली विशेषता बतलाते हैं
मिच्छो देसचरित्तं वेदगसम्मेण गेरहमाणो हु । दुकरणचरिमे गेण्हदि गुणलेढी णंत्थि तक्करणे ॥१७१॥ सम्मत्तुप्पत्तिं वा थोवबहूत्तं च होदि करणाणं । ठिदिखंडसहस्सगदे अपुवकरणं समप्पदि हु॥१७२॥