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गाथा १४८ ]
लब्धिसार
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पुन' उसके मध्यम अंशको प्राप्त कर और अन्तर्मुहूर्त कालतक उस रूप रहकर जघन्य अशमे भी जब अन्तर्मुहूर्त काल तक नही रह लेता तब तक अन्य लेश्यारूप परिवर्तन का होना सम्भव नही है |
कुछ प्राचार्य इसप्रकार भी अर्थ करते है कि जिसप्रकार अधःप्रवृत्तकरणके प्रारम्भमे पूर्वोक्त विधिसे तेज, पद्म और शुक्ललेश्यामे से अन्यतर लेश्या के साथ क्षपण - क्रियाका प्रारम्भ करने वाला जो जीव पुन. दर्शनमोहकी क्षपणारूप क्रियाकी समाप्ति होने पर कृतकृत्यरूप से परिणमन करता है उसके नियमसे शुक्ललेश्याके होनेमे विरोध नही है । पुनः उसका विनाश होनेसे आागममें बतलाई गई विधिके अनुसार यदि तेज और पद्मलेश्यारूपसे परिरणत होता है तो कृतकृत्य होने के बाद जब तक अन्तर्मुहूर्तकाल नही जाता तब तक वह उक्त लेश्यारूपसे परिवर्तन नही करता । अन्तर्मुहूर्तकाल के पश्चात् कृतकृत्य सम्यग्दृष्टि जीव पहलेकी अवस्थित लेश्याका परित्यागकर जघन्य कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल इनमे से अन्यतर लेश्यारूप से परिणमता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस वचन द्वारा कृष्ण और नीललेश्याका यहा अत्यन्त अभाव कहा गया जानना चाहिये, क्योकि प्रत्यन्त सक्लिष्ट हुआ भी कृतकृत्य जीव अपने कालके भीतर जघन्य कापोत लेश्याका अतिक्रम नही करता है ।
अब कृतकृत्यवेदक कालमें पायी जाने वाली क्रिया विशेष को कहते हैंसमवयं कद किज्जतोत्ति पुव्वकिरियादो ।
वट्टदि उदीरणं वा असं समयष्पबद्धा
॥१४८॥
अर्थ - पूर्व प्रयोग वश कृतकृत्यवेदक कालके अन्त तक प्रतिसमय सम्यक्त्व के अनुभागका अनन्तगुणी हानिरूप से अपवर्तन होता है तथा कृतकृत्य वेदककालमें एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहने तक असख्यात समयप्रबद्ध की उदीरणा भी होती है ।
विशेषार्थ - प्रनिवृत्तिकरणकालका संख्यातवां भाग अवशिष्ट रहने पर जिस प्रकार दर्शनमोहनीयके अनुभागकाण्डकघात को नष्टकर प्रतिसमय अनन्तगुणे घटते क्रम सहित अनुभागका अपवर्तन कहा था उसीप्रकार इस कृतकृत्यवेदककालके अन्तिम समयपर्यन्त पाया जाता है, क्योकि करण परिणामों की विशुद्धता के संस्कार का यहा अवशेष रहना सम्भव है । उस कृतकृत्यवेदककालमें जबतक एक समय अधिक