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गाथा १४५ १४६ ]
लब्धत
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----द्विचरम स्थितिमें जो प्रदेश पुञ्ज निक्षिप्त होता है उसे देखते हुए गुणश्र ेणि कीं अन्तिम अग्र स्थितिमे निक्षिप्त होने वाले द्रव्यका जो कार है वह न तो पत्योप के प्रथम वर्गमूलका असख्यातवा भाग है और न अन्य ही है, किन्तु पल्योष के प्रख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है; क्योकि नीचे निक्षिप्त किया गयान्द्रव्य अन्तिम फालिके द्रव्य को पल्योपमकै, असंख्यात प्रथम वर्गमूलोसे भाजित कर जो एक भाग लब्ध प्रावैः तत्प्रमाण स्वीकार किया गया है। इस केथन द्वासी धस्लन समस्त गुणकारों को वल्योप तत्प्रायोग्य असख्यात्वेभागप्रमाण सूचित किया गया जानना चाहिए, क्योंकि उन गुण कारों को पल्योपमक़े असख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण होने पर कर्मस्थितिके भीतर सचित हुए द्रव्य के अंगुलके असख्यातवे भाग समयः प्रबद्ध प्रमाण होनेका प्रतिप्रसङ्ग प्राप्त होता है। इसलिये, अन्तिम गुणकार ही प्पल्योपमं प्रसख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण हैं किन्तु अधस्तन समस्त सुखकार ल्योपम के तत्प्रायोग्य असख्यातवे भागप्रमाण है यह सिद्ध हुआ कि ए FW SPATE TH 5 की 1 F1 -
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अब दो गाथाओं में कृतकृत्यवेद सम्यक्त्व के प्रारम्भसमय के निर्देशपूर्वक उसकी अवस्था विशेषकी प्ररूपणा करते हैं
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चरि फालिदिए कद कर णिज्जेति वेदगो होदि
सो वा मरणं पावइ चउगइगमणं च तट्ठाणे ॥१४५॥
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देतेसुदेव : सुरण र तिरिए - चउग्गईसुपि । कुदकर णिज्जुप्पत्ती कमेण तो मुहुते ॥ १४६ ॥
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अर्थ - अन्तिमफालिं द्रव्य के दिये जाने पर कृतकृत्यवेदकेँ सम्यग्दृष्टि होता है । वहां मरण होवे तो चारो गतियो में जा सकता है । यदि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथम भाग से मरे - तो देवगतिमे ही उत्पन्न होता है । तत्प्रमाण दूसरे भाग मे मरणाही तो देव या मनुष्यो मे उत्पन्न होता है । - तत्प्रमारण तृतीय भागमे मरण हो तो देव, मनुष्य या तिर्यत्व (-इन-तीनो-मे से किसी भी गति ) मे उत्पन्न होता है । तत्प्रमारण चतुर्थभागमे मरण हो-तो चारो गतियोमे उत्पन्न हो सकता है ।
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क पा. सुत्त. पृ. ६५३ चूर्णिसूत्र ७६-८०; ज.ध.पुरे३ पृ. ७८ आदि T
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