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लब्धिसार
[ गाथा १४७ १३२ ]
विशेषार्थ-इसप्रकार अनिवृत्तिकरणके चरमसमयमे सम्यक्त्व मोहनीयके अन्तिमकाण्डकको अन्तिमफालिके द्रव्यका अधस्तनवर्ती निषेको मे निक्षेपण करने के पश्चात् अनन्तरवर्ती समयसे लेकर अनिवृत्तिकरणकालके सख्यातवे भागप्रमाण अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यन्त पुरातन गलितावशेष गुणश्रेणि आयामके शीर्ष को सख्यातका भाग देने पर बहुभागप्रमाण अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होता है, क्योकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा योग्य स्थितिकाण्डकादि कार्य तो अनिवृत्तिकरणके चरम समयमे ही समाप्त हो गया इसलिये किया है करने योग्य कार्य जिसने ऐसे कृतकृत्य नामको प्राप्त जीव भुज्यमान आयुके नाशसे मरण को प्राप्त होवे तो सम्यक्त्व ग्रहणसे पहले जो आयु बाधी थी उसके वशसे चारो-गतियोमे उत्पन्न होता है । वहा कृतकृत्यवेदकके कालके एक-एक अन्तर्मुहूर्तप्रमाण चार भाग करता है, उनमे से प्रथपभागमे मरे तो देवो मे ही, द्वितीय भाग मे मरे तो देव या मनुष्यो मे, तृतीयभाग मे मरे तो देव-मनुष्य या तिर्यंचो मे तथा चतुर्थभागमे मरे तो चारो गतियो मे उत्पन्न होता है, क्योकि वहा उन ही मे उत्पन्न होने योग्य परिणाम होते है। इस क्रम द्वारा कृतकृत्य वेदककी उत्पत्ति जानना चाहिए। . . . . ...
प्रागे अध करणके प्रथमलमयसे लेकर कृतकृत्यवेदककालके चरम समयपर्यन्त लेश्या परिवर्तन होने अथवा न होने सम्बन्धों कथन करते हैं- "
करणपडमादु जावय किदुकिच्चुरिं मुहुत अंतोत्ति । ण सुहाण पराबत्ती सा घि कोदावरं तु वरिं ॥१४७॥
अर्थ-अध करण से लेकर कृतकृत्यवेदक के ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक शुभ लेश्या को वदलता नही अर्थात् शुभ लेश्याम अवस्थित रहता है । अन्तर्मुहूर्त पश्चात् यदि अन्य लेश्या रूप परिणमता है तो जघन्य कापोतलेश्याका अतिक्रम नही करता है ।
विशेषार्थ-अध प्रवृत्तकरणमे विशुद्धिको पूर कर तेज (पीत), पद्म और शुक्ल इनमे से किसी एक शुभ लेश्या मे दर्शनमोहकी क्षपणा का प्रारम्भकर पुन जब जाकर यह जीव कृतकृत्य होता है तब तक उसके पूर्वमे प्रारम्भ की गई वही लेश्या पाई जाती है तथा पुन उसके आगे भी जब तक अन्तमुहर्तकाल नहीं गया तब तक प्रारव्य उक्त लेश्याको छोड कर अन्य लेश्यारूप परिवर्तन नही करता है, क्योकि कृतकृत्य भावको प्राप्त होनेवाले जीवके पूर्वमे प्रारब्ध हुई लेश्या का उत्कृष्ट अश होता है।