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लब्धिसार
[ गाथा : १३८
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सख्यातगुणा हीन है । इसलिये इस चयरूप ऋण को नही गिना अर्थात् द्रव्यप्रमाण लानेमे इसको दृष्टिसे ओझल कर घटाया नही गया ।। १३७ ।।
उस समय गुण रिगशीर्ष को छोडकर उपरिम स्थितियो मे दृश्यमान द्रव्य प्रत्येक निषेकमे विशेषहीन क्रमसे वर्तन करता है ।। १३८ ।।
विशेषार्थ - इस समय अपकर्षित हुए द्रव्य के बहुभागको अन्तर्मुहूर्त कम ग्राठ वर्षो द्वारा भाजितकर वहा जो एकभागप्रमारण द्रव्य प्राप्त हो, विशेष अधिक करके उसे इस समयके गुणश्र ेणिशीर्षमे निक्षिप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इससे ऊपर सर्वत्र अतिस्थापनावलिमात्र से अन्तिम स्थिति को नही प्राप्त होने तक विशेषहीनविशेषहीन द्रव्यका सिंचन करता है । इसप्रकार आठवर्ष के स्थितिसत्कर्मवाले जीवके प्रथमसमयमे दीयमान द्रव्यकी प्ररूपणा की ।
अब वही दृश्यमान द्रव्य किसप्रकार अवस्थित रहता है इसका निर्णय करेगे । यथा-पहलेके गुणश्र रिगशीर्षसे इस समयका गुणश्रेणिशीर्ष ग्रसख्यातगुणा नही होता है । इस समय अपकर्षित कर ग्रहण किया गया समस्त द्रव्य भी मिलकर ग्राठवर्ष सम्बन्धी एक स्थितिके द्रव्यको पल्योपमके असख्यातवे भागसे भाजितकर जो एक भाग लब्ध आवे उतना होता है, क्योकि आठवर्ष प्रमाण निषेको मे अपकर्षण भागहार का भाग देने पर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण है । पुन उसके भी सख्यातवे भागप्रमाण द्रव्य को ही नीचे गुणश्रेणिमे सिचित करता है । शेष असख्यात बहुभागको इस समय के गुरणश्रेणिशीर्ष से उपरिम गोपुच्छाओ मे आगममे प्ररूपित विधि के अनुसार सिचित करता है । इस कारण से पहले के गुणश्र णिशीर्ष से इस समय का गुणश्रेणिशीर्ष ग्रसख्यातगुणा नही हुआ, किन्तु दृश्यमान द्रव्य विशेषाधिक ही है ऐसा निश्चय करना चाहिये । विशेषाधिक होता हुआ भी प्रसख्यातवा भाग ही अधिक है, अन्य विकल्प नही है'।
अब इसी असख्यातवे भाग अधिक को स्पष्ट करनेके लिये यह प्ररूपणा करते हैं । यथा अघस्तन समयके गुणश्रेणिशीर्ष का द्रव्य लाना चाहते है इसलिये डेढ गुणहानि गुणित एक समयप्रबद्ध को स्थापितकर उसका अन्तर्मुहूर्त कम ग्राठवर्ष प्रमाण भागहार स्थापित करना चाहिये । इसप्रकार स्थापित करने पर पिछले समयके गुण
१ ज ध पु १३ पृ ६८ ।