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लब्धिसार
[ गाथा १३६ १२६ ] ही नीचे गुणश्रेणिमे निक्षिप्तकर शेष बहुभागप्रमाण द्रव्यको अवस्थित गुणश्रेणिशीर्ष से लेकर अन्तर्मुहर्त कम आठ वर्षो मे गोपुच्छाकाररूपसे सीचता है। इसलिये अन्तर्मुहूर्तकम आठ वर्षोके द्वारा इस काण्डकद्रव्यकै भाजित करने पर विवक्षित समयके अवस्थित गुणश्रोणिशीर्षमे पतित होनेवाली द्रव्य वहा सम्बन्धी पूर्वके सचयके समनन्तर अधस्तन गुणश्रेणिशीर्ष के संख्यातवां भाग आता है । इसलिये सिद्ध हुआ कि उस अवस्था मे द्विचरम गुणश्रोणिशीर्ष से अन्तिम गुणश्रेणिशीर्षका द्रव्य सख्यातवा भाग अधिक होकर दिखाई देता है। इसीप्रकार ऊपर भी सर्वत्र द्विचरमस्थितिकाडक की अन्तिमफालि के प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये, क्योकि एक कम स्थितिकाण्डकके उत्कीरणकालप्रमाण कालतक असख्यातवा भाग अधिक और काण्डकके अन्तिम समय मे सख्यातवाभाग अधिक गुणश्रेणिशीर्षमे दृश्यमान द्रव्य होता है। इस प्रकार इस कथनके साथ पूर्वोक्त कथनका कोई भेद नही पाया जाता है । इसप्रकार द्विचरम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालि पर्यन्त ही यह प्ररूपणाप्रवन्ध है' ।
आगे अन्तिमकाण्डकका विधान कहते हैंगुणसेटिसंखभाग तत्तो संखगुण उवरिमठिदीओ। सम्मत्तचरिमखंडो दुचरिमखंडादु संखगुणों ॥१३६॥
अर्थ-गुणश्रेणि के सख्यात बहुभाग को और उससे सख्यातगुणी उपरितन स्थितियोको घात के लिये ग्रहण करने वाला चरम स्थितिकाण्डक, द्विचरम स्थितिकाण्डक घात से सख्यातगुणा है।।
विशेषार्थ-पहले आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म से लेकर विशेषहीनके क्रमसे अन्तर्मुहूर्त आयामवाले स्थितिकाडको का घात कर यहा द्विचरम स्थितिकाण्डकसे सख्यातगुणे आयामरूपसे अन्तिम स्थितिकाण्डको को ग्रहण करता है यह तात्पर्य है । इसप्रकार इस अल्पबहुत्वके द्वारा अन्तिम स्थितिकाण्डकका प्रमाण-विषयक निर्णय करके अब सम्यक्त्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता हुआ इस विधि से ग्रहण करता है इस बातका ज्ञान कराने के लिये कहते हैं
___ "चरम स्थितिकाण्डकको घात के लिये ग्रहण करता हुआ गुणश्रेरिणके (उपरिम) सख्यात बहुभाग को ग्रहण करता है और उपरिम अन्य सख्यातगुणी स्थितियो को ग्रहण करता है।" । १ ज. ध पु १३ पृ ६७-७० ।