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लब्धिसार
[ गाथा ११० १०४ ] "अथ क्षायिकसम्यक्त्व प्ररुपणा. अधिकार"
अब क्षायिक सम्यक्त्वोत्पत्तिको सामग्रीका कथन करते हैंदसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजो मणुसो। तित्थयरपायमूले केवलिसुदकेवलीमुले ॥११०॥
अर्थ-कर्मभूमि मे उत्पन्न हुआ मनुष्य तीर्थङ्कर के या अन्यकेवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल मे दर्शनमोहकी क्षपणा का प्रस्थापक-प्रारम्भ करनेवाला होता है ।
विशेषार्थ- इस गाथा द्वारा दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक कर्मभूमिज मनुष्य ही होता है । यह निश्चय किया गया है, क्योकि अकर्मभूमिज ( भोगभूमिज ) मनुष्य के दर्शनमोह की क्षपणा करने की शक्तिका अत्यन्त प्रभाव होने के कारण वहा उसका निषेध किया गया है। इसलिये शेष गतियोमे दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रतिषेध होनेसे मनुष्यगतिमे ही विद्यमान जीव दर्शनमोहकी क्षपणा प्रारम्भ करता है। मनुष्य भी कर्मभूमि मे उत्पन्न हुआ ही होना चाहिए अकर्मभूमिमें नही ऐसा यहा अर्थग्रहण करना चाहिए । कर्मभूमि मे उत्पन्न हुआ मनुष्य भी तीर्थङ्कर, केवली और श्रुतकेवली के पादमूलमे अवस्थित होकर दर्शनमोहकी क्षपणा प्रारम्भ करता है, अन्यत्र नही, क्योकि जिसने तीर्थङ्करादि के माहात्म्यका अनुभव नही किया है उसके दर्शनमोहनीय की क्षपणाके कारणभूत करण-परिणामोकी उत्पत्ति नही हो सकती' ।
अध करण के प्रथम समयसे लेकर मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के द्रव्य का सम्यक्त्वप्रकृतिरूप होकर सक्रमण करने तक अन्तर्मुहर्तकाल पर्यंत दर्शनमोहकी अपणाका प्रारम्भक कहा जाता है । जिस कर्म के उदय से जीव मिथ्यात्व परिणाम का वेदन करता है उस कर्मको मिथ्यात्वकर्म कहते है । उसके अपवर्तित होने पर अर्थात् सर्वसक्रम द्वारा सक्रमित होनेपर वहासे लेकर यह जीव दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक इस सज्ञाको प्राप्त होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । परन्तु उसका अप
१. ज.घ पृ १३ पृ. २ देखो गाथा ११० कषायपाहुउ । २ लब्धिसार गाथा ११० की टीका। ३ व पा मुत्त पृ ६४० ।