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गाव १२७ ]
लब्धिसार
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अर्थ - अनन्तानुबन्धीका विसयोजन करनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त तक विश्राम करके फिर तीन कररणो को करता है । अनिवृत्तिकरणकालमे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति को नष्ट करता है ।।११७।।
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अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय में दर्शनमोहकी स्थिति पृथक्त्व लक्षसागरप्रमाण है और शेष कर्मोकी स्थिति पृथक्त्व लक्ष कोटिसागर प्रमाण है ।।११८ ।।
दर्शनमोहकी पृथक्त्व लक्षसागरप्रमाण स्थिति प्रथम समय मे सम्भव होती है उससे आगे सख्यातहजार काण्डक होने पर प्रसंज्ञीके बन्धके समान एक हजारसागर स्थितिसत्त्व रहता है । उसके पश्चात् बहुत - बहुत स्थितिकाडक हो जाने पर क्रमसे चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान सौ सागर, पचाससागर, पच्चीससागर और एकसागर स्थितिसत्त्व होता है । पश्चात् बहुत स्थितिखण्ड होने पर पत्यप्रमाण स्थितिसत्त्व होता है ॥ ११६ ॥
पत्यकी स्थितिसत्त्वके बाद संख्यात बहुभाग प्रायामवाले संख्यातहजार स्थितिघात होजाने पर नियमसे दूरापकृष्टि संज्ञावाला स्थितिसत्त्व होता है ।। १२० ।
दूरापकृष्टि नामक स्थितिसत्त्वका प्रमाण पल्य के सख्यातवे भागमात्र है । उससे आगे पल्यमे असंख्यातका भाग देनेपर उसमेसे बहुभागप्रमारण आयामवाले संख्यातहजार स्थितिकाण्डकं होनेपर सम्यक्त्वप्रकृतिके द्रव्यका अपकर्षण किया उसमे असख्यात समयप्रबद्धप्रमाण उदीरणारूप द्रव्यको उदयावलीमे देता है । इसके पश्चात् बहुत स्थितिखण्डों के द्वारा मिथ्यात्वकी उच्छिष्टावलि अर्थात् उदयावलि मात्र स्थिति रह जाती है ।।१२१-१२२ ।।
जिस अवसरमे असख्यात समयप्रबद्धकी उदीरणा होती है उस समयसे उत्तरकालमें उदयावलीमे द्रव्य देने के लिए भागहार पल्यका असख्यातवा भागमात्र है । पूर्ववत् असंख्यातलोक मात्र नही है ।।१२३||
मिथ्यात्वकी उच्छिष्टावलि स्थिति के बाद पत्य के असंख्यात बहुभागवाले संख्यात स्थितिखण्ड व्यतीत हो जानेपर सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका नियमसे उच्छिष्टावलिमात्र स्थितिसत्त्व रहता है ।। १२४ ॥
{ जब मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व ) की उच्छिष्टावलि प्रमाण स्थिति रहती है उसी समयमे रहनेके समयसे सम्यक्त्वप्रकृतिके पल्यके प्रसख्यात बहुभाग प्रायामवाले सख्यात