________________
[ गाथा ११६ लब्धिसार १०८ ] विसयोजना करता है। इन करणोका लक्षण दर्शनमोहकी उपशामनामे जिसप्रकार कहा गया है उसीप्रकार यहा जानना चाहिये, क्योकि कोई विशेषता नही है । अध.. प्रवृत्तकरणरूप विशुद्धि द्वारा अन्तर्मुहूर्त कालतक विशुद्ध होने वाले जीवके प्रतिसमय केवल अनन्तगुणी विशुद्धि से विशुद्ध होता जाता है । अध प्रवृत्तकरण मे स्थितिघताई अनुभागघात, गुणश्रेरिण और गुणसक्रमण नही होता, क्योकि अध प्रवृत्त करणरूप विशुद्धि स्थितिघात आदि का कारण नही है । हजारो स्थितिवन्धापसरण, अशुभकर्मो का प्रतिसमय अनन्तगुणीरूप से अनुभागबन्धापसरण और शुभ कर्मोका अनन्तगुगी वृद्धिरूप से चतु स्थानीय अनुभागबन्ध यह अध प्रवृत्तकरण विशुद्धियोका फल जानना चाहिये।
___ अपूर्वकरणमे स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेरिण और गुणसंक्रमण है । यहा की गुणश्रोणि सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, सयतासयत और सयतसम्बन्धी गुणश्रेणियोसे प्रदेशोकी अपेक्षा असख्यातगुणी है तथा उनके आयामसे सख्यातगुणी हीन है। परन्तु गुणसक्रम अनन्तानुबन्धियोका ही होता है, अन्य कर्मोका नही होता ऐसा कहना चाहिए। इसप्रकार प्रत्येक हजारो अनुभागकाडकोके अविनाभावी ऐसे स्थितिवन्धापसरणोके साथ होनेवाले हजारो स्थितिकाण्डको के द्वारा अपूर्वकरणके कालको समाप्त करता है। अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे जो स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म होता है उससे उसके अन्तिम समयमे स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा हीन होता है । तत्पश्चात् प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणवाला हो जाता है। तव अनन्तानुवन्धियोका स्थितसत्कर्म अन्त कोडाकोडीके भीतर लक्षपृथक्त्वसागरोपमप्रमाण होता है । शेप कर्मोका अन्तःकोडाकोडीके भीतर होता है। फिर भी अनिवृत्तिकरणमे प्रविष्ट हुए जीवके भी इसीप्रकार स्थितिकाडक, अनुभागकाडक, स्थितिवन्धापसरण, गुणथोरिणनिर्जरा और गुणसक्रम परिणाम व्यामोहके बिना जानना चाहिए ।
अनिवृत्तिकरण मे भी पूर्वोक्त स्थितिकाडकघात, अनुभागकाडकघात, गुणश्रेणि, गुणसक्रमरण आदि कार्य होते है । दर्शनमोहकी उपशामना मे जिसप्रकार अनिवृत्तिकरणमे अन्तरकरण होता है, उसप्रकार यहा पर नही होता है, क्योकि दर्शनमोह१. ज ध. पु १३ पृ १६८ । २ त सू. अ सू ४५। ३ ज घ. पु १३ पृ १६६ ।