________________
गाथा १२७ ] लब्धिसार
[ ११५ करणके प्रथमसमय मे अन्य अनुभागकाण्डक होता है, क्योकि अपूर्वकरणके अतिमसमय के अनुभागसत्कर्मका अनन्तबहुभाग अनुभागकाण्डकरूप से ग्रहण किया गया है, किन्तु गुणश्रेणि पहलेके समान ही गलितावशेष आयामवाली उदयावलिसे बाहर होती है । मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्कर्म भी उसीप्रकार प्रवृत्त रहता है' । अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमे दर्शनमोहनीयकर्मकी अप्रशस्तउपशामनाका विनाश हो जाता है, शेषकर्म उपशान्त और अनुपशान्त दोनो प्रकार से रहते है । कितने ही कर्मपरमाणुरो का बहिरङ्ग-अन्तरङ्ग कारणवश उदीरणा द्वारा उदयमें अनागमनरूप प्रतिज्ञा अप्रशस्तोपशामना है। केवल अप्रशस्तउपशामना ही विच्छिन्नं नही हुई, किन्तु दर्शनमोहनीयत्रिक के निधत्तिकरण व निकाचितकरण भी नष्ट होगये, क्योकि सभी स्थितियोके सभी परमाणु अपकर्षण द्वारा उदीरणा करनेके लिये समर्थ हो गये है।
__गाथा ११८ द्वारा अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें आयुकर्मके अतिरिक्त शेष सात कर्मोकी स्थितिसत्कर्मका निश्चय किया गया है । दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म विशेषघात के वश से पृथक्त्व लक्षसागर हो जाता है । तत्पश्चात् प्रथमस्थितिकाडक से लेकर सहस्रो स्थितिकाडको द्वारा अनिवृत्तिकरणकालके सख्यातबहुभाग व्यतीत होने पर और संख्यातवाभाग शेष रहने पर दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म लक्षपृथक्त्वसागर से क्रमशः घटकर पूरा एकसहस्रसागर असज्ञीपञ्चेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान हो जाता है। उसके बाद स्थितिकाडक पृथक्त्व के सम्पन्न होने पर चतुरिन्द्रिय जीवोके बन्धके समान दर्शनमोहनीयका स्थितिकर्म १०० सागर प्रमाण हो जाता है। उसके पश्चात् स्थितिकाडकपृथक्त्वके सम्पन्न होने पर त्रीन्द्रियजीवो के स्थितिबन्धके समान ५० सागर, उसके बाद स्थितिकाडकपृथक्त्व हो जाने पर द्वीन्द्रियजीवो के स्थितिबधवत् २५ सागर, तत्पश्चात पृथक्त्व स्थितिकाडकोके द्वारा एकेन्द्रियजीवोके स्थितिबन्ध सदृश एकसागर इसके बाद स्थितिकाडकपृथक्त्वद्वारा पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रह जाता है । यहा 'पृथक्त्व' विपुलवाची है । पल्योपप्रमाण स्थितिसत्कर्म रहनेसे पूर्व सर्वत्र ही अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर स्थितिकाडकायाम पल्यके सख्यातवेभाग प्रमाण होता
१. ज.ध. पु. १३ पृ. ३६ । २. ज. प. पु. १३ पृ. ४० । ३. ज ध. पु १३ पृ. ४१ । ४. ज.ध. पु. १३ पृ. ४२-४३ ।