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लब्धिसार
[ गाथा १२७
११४ ]
निक्षेप सम्भव नही है । परन्तु उसका आयाम अपूर्वकरण और निवृत्तिकरण काल से विशेषाधिक है । यही पर मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका गुण सक्रम भी प्रारम्भ होता है ।
अपूर्वकरणके दूसरे समयमे वही स्थितिकाडक है, वही ग्रनुभागकाडक है, वही स्थितिबन्ध है, किन्तु गुणश्रेणि अन्य होती है, क्योकि प्रथमसमयमे जितने द्रव्यका अपकर्षण हुआ है उससे असख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षणकर उदयावलिके बाहर गलितावशेष आयामरूपसे उसका निक्षेप करता है । इसप्रकार एक अनुभागकाडकके व्यतीत होनेके अन्तर्मुहूर्तकालतक जानना चाहिये । ऐसे हजारो अनुभागकाण्डको के समाप्त होने पर प्रथमस्थितिकाडक व स्थितिबन्ध काल समाप्त होता है । ग्रनन्तर समय मे अन्यस्थितिकाडक, अन्य स्थितिबन्ध और अन्य अनुभागकाडकको प्रारम्भ करता है' । प्रथम स्थितिकाण्डक बहुत है उससे दूसरा स्थितिकाडक विशेष हीन है, उससे तृतीय स्थितिकाण्डक विशेषहीन है । इसप्रकार विशेषहीन - विशेषहीन होते-होते अपूर्वकरणकालके भीतर अर्थात् अन्तसे पूर्व ( पहले ) प्रथम स्थितिकाडक से सख्यातगुणाहीन स्थितिकाण्डक उपलब्ध होता है । इस क्रमसे हजारो स्थितिकाण्डकोके व्यतीत होने पर अपूर्वकरण कालके अन्तिम समयको प्राप्त होता है । उसी समय ग्रनुभागकाडकका उत्कीररणकाल, स्थितिकाडकका उत्कीरणकाल और स्थितिवन्ध युगपत् समाप्त होते है । अपूर्वकरण के अन्तिमसमयमे स्थितिसत्कर्म थोडा है, क्योकि सख्यातहजारस्थितिकाडको के द्वारा घात होकर वहा का स्थितिसत्त्व शेष रहा है । उससे अपूर्वकरण के प्रथमसमयमे स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा है, क्योकि अपूर्वकरण परिणामो द्वारा उसका घात नही हुआ है । पूर्वकरण के प्रथमसमयमे स्थितिबन्ध भी बहुत होता है तथा अपूर्वकरणके अन्तिमसमयमे स्थितिबन्ध सख्यातगुणा हीन होता है ।
अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमे, अपूर्वं करण के अन्तिमस्थितिकाण्डकसे विशेषहीन अन्यस्थितिकाण्डकसे विशेषहीन अन्य स्थितिकाण्डक होता है, किन्तु वह स्थिति - काण्डक जघन्य स्थितिसत्कर्मवाले के जघन्य होता है और उत्कृष्टस्थिति वाले के उत्कृष्ट होता है । परन्तु द्वितीयादि स्थितिकाण्डक सभी जीवोके सदृश होते है वही अनिवृत्ति -
१. ज ध पु १३ पृ ३५ ।
२
३
जध पु १३ पृ ३६-३७ ।
पु१३ पृ ३८ ।