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गाथा ११३-११६ ] लब्धिसार
[ १०७ अणियट्टीश्रद्धाए अणस्स चत्तारि होति पवाणि । सायरलक्खपुधत्तं पल्लं दूरावकिट्ठि उच्छि8 ॥११३॥ पल्लस्स संखभागो संखा भागा असंखगा भागा। ठिदिखंडा होंति कमे अणस्स पव्वादु पन्वोत्ति ॥११४॥ अणियट्टीसंखेज्जा भागेसु गदेसु अणगठि दिसत्तो। उदधिसहस्सं तत्तो वियले य समं तु पल्लादी ॥११५॥ उबहिसहस्तं तु सयं पण्णं एणवीसमेक्कयं चेव । वियलचउक्के एगे मिच्छुक्कस्सट्ठिदी होदि ॥११६॥
अर्थ-दर्शनमोह की क्षपणाके पहले तीनकरण विधान द्वारा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ की उदयावलिसे बाह्य की स्थितिका अनिवृत्तिकरणके अन्त समयमे नियमसे विसयोजन करता है ।
अनिवृत्तिकरणकाल में अनन्तानुबन्धीकषायके पृथक्त्वलक्षसागर, पल्यप्रमाण, दूरापकृष्टिप्रमाण और उच्छिष्टावलि प्रमाणरूप चार स्थितिसत्त्व होते है।
__ अनन्तानुवन्धीके स्थितिसत्त्वके प्रथम पर्वसे दूसरे पर्व पर्यन्त, दूसरे से तीसरे पर्व पर्यन्त और तीसरे से चौथे पर्व पर्यन्त जो स्थितिकाडक होते है उनका आयाम क्रम से पल्यका सख्यातवाभाग, पल्यका सख्यात बहुभाग और पल्यका असख्यात बहुभागमात्र है।
अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होने पर एक भाग अवणिप्ट रहनेपर अनन्तानुबन्धीका स्थितिसत्त्व एक हजारसागर प्रमाण, पश्चात् विकलेन्द्रियके बन्ध समान, पश्चात् पल्य और आदि शब्दसे दूपिकृष्टि और प्रावलिमात्र होता है।
विकल चतूप्क अर्थात् असज्ञी पचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय के मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे एकहजारसागर, सौ सागर, पचास सागर, पच्चीससागर और एक सागरप्रमाण होता है। इन्ही के समान अनन्तानुवन्धी का स्थितिसत्त्व होता है । इसका कथन पूर्व मे किया ही है ।
विशेषार्थ-अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनो ही करणोको; असयत, देशसयत, प्रमत्त और अप्रमत्तसयत जीव करके अनन्तानुवन्धी की