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लब्धिसार
[प्र. स. चूलिका १०२ ] उपशम सम्यक्त्व काल के पश्चात् मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध भजनीय होने में विरोध उपलब्ध नहीं होता'
सम्मत्तपढमलभस्साणंतरं पच्छदो य मिच्छत्त।
__ लभस्स अपढमस्स दु भजिद-वो पच्छदो होदि ॥५॥ अर्थ-सम्यक्त्व के प्रथम लाभ-(उपशमसम्यक्त्व) के अनन्तर ( पच्छदो ) पूर्व मिथ्यात्व ही होता है। अप्रथमलाभ (क्षयोपशम सम्यक्त्व) के ( पच्छदो ) पूर्व मिथ्यात्व भजनीय है।
विशेषार्थ-यह कषायपाहुड की १०५ वी गाथा है। ‘पच्छदो' यद्यपि ‘पश्चात्' का वाचक है, किन्तु यहा पर 'पीछे का वाचक शब्द ग्रहण करके 'पूर्व' -अर्थ किया गया है, क्योकि प्रथमोपशमसम्यक्त्व के पश्चात् मिथ्यात्व का नियम नही है, सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का भी उदय हो सकता है जैसा कि उपरोक्त गाथा ३ व ४ मे कहा गया है, किन्तु प्रथमोपशमसम्यक्त्व से अनन्तरपूर्व मिथ्यात्व का उदय नियमसे होता है, क्योकि मिथ्यादृष्टि ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहण के अभिमुख हो सकता है, अन्य नहीं । अत यहा पर 'प्रच्छदो' का 'पीछे' अर्थात् सम्यक्त्व से पूर्व क्या अवम्या थी इस बात का ज्ञान कराने के लिये 'पूर्व' अर्थ किया गया है। इसका समर्थन कपायपाहुड की जयधवल टीका से भी होता है जो इसप्रकार है- .
अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के सम्यक्त्व का जो प्रथम लाभ होता है उसके 'अणतर पच्छदो' अनन्तरपूर्व पिच्छली अवस्थामे मिथ्यात्व ही होता है, क्योकि उसके प्रथमन्थिति के अन्तिम समयतक मिथ्यात्वके अतिरिक्त प्रकारान्तर सम्भव नही है । 'लभस्स अपढमस्स दु' अर्थात् जो नियमसे अप्रथम सम्यक्त्व का लाभ है उसके अनतर पुर्य अवस्था मे मिथ्यात्व का उदय भजनीय है। कदाचित् मिथ्यादृष्टि होकर वेदकनन्यस्त्व (क्षयोपशम सम्यक्त्व) या प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त करता है और बाचित् गम्य ग्मिय्यादृष्टि होकर वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त करता है।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व से गिरने का कथन
यहा उपशम सम्यक्त्व के रहते हुए जितना अन्तरकाल समाप्त हुआ है उससे अनयाल गेप बचा रहता है वह उपशमसम्यक्त्व के काल से सख्यातगुणा होता है। . " "g08:१०.१२ ।
7., पु २ पृ २६८; व पु ६ पृ २४२, क पा सुत्त पृ ६३५। .