________________
गाथा ३४-३५ ] लब्धिसार
[ २६ वह करण यहा तीनप्रकारका होता है। प्रथम अधःप्रवृत्तकरण, द्वितीय अपूर्वकरण और तृतीय अनिवृत्तिकरण । ये तीनोंकरण क्रमशः होते है । अर्थात् प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके भेदसे तीनप्रकारकी विशुद्धिया होती है।
आगे तीनोंकरणोंके कालका अल्पबहुत्वसहित कथन करते हैं
अंतोमुत्तकाला तिरिणवि करणा हवंति पत्तेयं । उवरीदो गुणियकमा कमेण संखेज्जरूवेण ॥३४॥
अर्थ-तीनों करणोमे से प्रत्येककरणका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल होता है, किन्तु ऊपरसे नीचेके करणोंका काल सख्यातगुणा क्रम लिये हुए है ।
विशेषार्थ-अध प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों करणोमे से प्रत्येक करणका काल अन्तर्मुहूर्त है। इसमे भी अनिवृत्तिकरणका काल स्तोक है, उससे सख्यातगुणा अपूर्वकरणका काल है, उससे संख्यातगुणा अधःप्रवृत्तकरणका काल है । अन्तर्मुहूर्तकालके बहुत भेद है।
अथानन्नर अधःप्रवृत्तकरणका निरुक्तिपूर्वक कथन करते हैं- . जम्हा हेद्विमभावा उवरिमभावेहिं सरिसगा होति । . तम्हा पढमं करणं अधापवत्तोत्ति णिहिट्ठ॥३५॥
अर्थ-क्योंकि अधस्तन (नीचेके) भाव उपरितनभावोंके साथ सदृश होते है अत प्रथमकरणको अध प्रवृत्तकरण कहा गया है ।
विशेषार्थ-प्रथमकरणमे विद्यमानजीवके करणपरिणाम अर्थात् उपरितन समयके परिणाम (पूर्व) समयके परिणामोके समान प्रवृत्त होते है वह अध प्रवृत्तकरण' है। इसकरणमे उपरिमसमयके परिणाम नीचेके समयोमे भी पाये जाते है, क्योकि
१. ज ध पु. १२ पृ. २३३ । २. ध पु ६ पृ २१४; ज. घ. पु. १२ पृ. २३३, क. पा. सु पृ ६२१ । ३. क पा सुत्त पृ ६२१ । ४. किंचित् पाठान्तरेणेयमेवगाथाऽऽगता गोम्मटसारजीवकाण्डे (गाथा ४८) । ५. ज.ध. पु १२ पृ. २३३ ।