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[ गाथा ८४
अर्थ — दूसरे करण (अपूर्वकरण) के समान ही तृतीयकरण ( अनिवृत्तिकरण ) होता है, किन्तु प्रतिसमय एक-एक परिणाम होता है । अन्य स्थितिकाडक, अन्य अनुभागकाडक और अन्य स्थितिबन्ध को प्रारम्भ करता है ।
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लब्धिसार
विशेषार्थ — ग्रनिवृत्तिकरण मे भी स्थितिकाडकघात, अनुभागकाण्डकघात, स्थितिबन्धापसररण, गुरणश्रेणी ये सभी क्रिया अपूर्वकरणवत् होती है, किन्तु इनका प्रमाण अन्य होता है । प्रपूर्वकरण मे प्रत्येक समय के परिणाम असख्यातलोक प्रमाण होते हैं, किन्तु अनिवृत्तिकरणमे प्रत्येक समयमे नानाजीवो के एक सा ही परिणाम होता है । नानाजीवो के परिणामो मे निवृत्ति अर्थात् परस्पर भेद जिसमे नही है वह श्रनिवृत्तिकरण है' ।
निवृत्तिकरण मे प्रविष्ट होनेके प्रथम समय से ही अपूर्वकरण के अन्तिम स्थितिकाडक से विशेष हीन अन्य स्थितिकाडक को प्रारम्भ करता है । पूर्व के रितिबन्ध से पत्योपम के सख्यातवेभागप्रमाण हीन स्थितिवन्ध भी वही पर आरम्भ करता है तथा घात करने से शेष रहे अनुभागके ग्रनन्त बहुभागप्रमाण काण्डकको भी वही पर ग्रहण करता है, किन्तु गुणश्र णिनिक्षेप पूर्वका ही रहता है जो अध स्तनस्थितियो के गलने पर जितना शेष रहे उतना होता है तथा प्रतिसमय असख्यातगुणे प्रदेशो के विन्यास से विशेषता को लिए हुए होता है । शेष विधि भी पूर्वोक्त ही जाननी चाहिए । अब अनिवृत्तिकरणकालमें विशेष कार्यका कथन करते हैंसंखेज्जदिमे से से दंसणमोहस्स अंतरं कुणई । अरणं ठिदिरसखंड अरणं ठिदिबंधणं तत्थ ॥ ८४ ॥
अर्थ – (अनिवृत्तिकरणकाल का ) सख्यातवाभाग शेष रह जाने पर दर्शनमोहनीयकर्मका अन्तर करता है । वहा पर अन्यस्थितिकाण्डक अन्य अनुभागकाण्डक और अन्य ही स्थितिवन्व होता है ।
विशेषार्थ — इसप्रकारं अनन्तर पूर्व कही गई विधि के अनुसार जो प्रत्येक स्थितिकाण्टक हजारो अनुभाग काण्डको का ग्रविनाभावी है, ऐसे बहुत हजार स्थिति
१. पु. १ पृ १६३ एवं क पा. मुत्त पृ ६२४, ज. घ. पु १२ पृ २५६ ।
२. ज. ध. पु १२ पृ. २७१ ।