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गाथा १०१ ] लब्धिसार
[८३ के उदय से होता है । प्रथमोपशम सम्यक्त्व से पूर्व तीनकरण (अधकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण) होते है । अनिवृत्तिकरण काल का बहुभाग व्यतीत हो जाने पर दर्शनमोहनीय कर्म का अन्तर होकर उपशम होता है, किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्क का न तो अन्तर होता है और न उपशम होता है । हा । परिणामो की विशुद्धता के कारण प्रतिसमय स्तिवुक सक्रमण द्वारा अनन्तानुबन्धीकषाय का अप्रत्याख्यानादि कषायरूप परिणभन होकर परमुख उदय होता रहता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल मे अधिक से अधिक छह प्रावलि काल शेष रह जाने पर और कम से कम एक समय काल शेप रह जाने पर यदि परिणामो की विशुद्धता मे हानि हो जावे तो अनन्तानुवन्धीकषाय का स्तिवुकसक्रमण रुक जाता है और अनन्तानुबन्धीका परमुख उदय की बजाय स्वमुख उदय आने के कारण प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्रासादना (विराधना) हो जाती है और प्रथमोपशम सम्यक्त्व से गिरकर दूसरा सासादन गुणस्थान हो जाता है । मिथ्यात्वप्रकृति का अभी उदय नही हुआ, क्योकि उसका अन्तर व उपशम है। अतः उसको मिथ्यादृष्टि नही कहा गया । अनन्तानुबन्धीकषाय जनित विपरीताभिनिवेश हो जाने के कारण सम्यक्त्व की विराधना हो जाने से उसकी सासादनसम्यग्दृष्टि (सम्यवत्व की विराधना सहित) सज्ञा हो जाती है।
अब उपशमसम्यक्त्व सम्बन्धी प्रारम्भिक सामग्रीका कथन करते हैं'सायारे पट्ठवगो णिटुवगो मज्झिमो य भजणिज्जो । जोगे अण्णदरम्हि दु जहण्णए तेउलेस्साए ॥१०१॥
अर्थ-दर्शनमोहके उपशमन का प्रस्थापक जीव साकार उपयोग मे विद्यमान होता है, किन्तु उसका निष्ठापक और मध्य अवस्थावर्ती जीव भजितव्य है। तीनो योगो में से किसी एक योग मे विद्यमान तथा तेजोलेश्या के जघन्य अश को प्राप्त वह जीव दर्शनमोह का उपशामक होता है ।
विशेषार्थ- उक्त गाथा कषायपाहुड गाथा १८ से शब्दश मिलती है । दर्शनमोहोपशामना सम्बन्धी १५ गाथाओ मे से यह चतुर्थ गाथा है। इस गाथा सूत्र मे १ किंचित् पाठान्तरेण गाथेय (ज. ध पु. १२ पृ. ३०४ गा ६८ पर) अस्ति । "सायारे पढ़वो णिवो मज्झिमो य भयणिज्जो। जोगे अण्णदरम्मि दु जहण्णए तेउलेस्साए । (प. पु. ६ पृ २३६ गा. ५)