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लब्धिसार
[ गाथा ६७-SF स्थितिवन्ध से सख्यातगुणा है। उससे जघन्य स्थिति सत्कर्म सख्यातगुणा है, क्योकि मिथ्यादृष्टि के अन्तिम समय में मिथ्यात्व का जो जघन्य स्थिति सत्कर्म होता है और शेष कर्मों का भी गुणसक्रमण काल के अन्तिम समय मे जो जघन्य सत्कर्म होता है, वन्ध की अपेक्षा उस सत्कर्म के सख्यातगुणा होने मे कोई विरोध नही है। उससे उत्कृष्ट सत्कर्म सख्यातगुणा है, क्योकि सभी कर्मों के अपूर्वकरण सम्बन्धी प्रथम समय से सम्बन्ध रखने वाले उत्कृष्ट सत्कर्म का प्रकृत मे अवलम्बन लिया गया है । इसप्रकार पच्चीस पदवाला दण्डक समाप्त हुआ' ।
अब प्रथमोपशमसम्यक्त्व ग्रहणकालमें पाये जाने वाले स्थितिसत्त्वका कथन करते हैं
अंतोकोडाकोडी जाहे संखेज्जप्लायरसहस्से । गुणा कम्माण ठिदी ताहे उवसमगुणं गहइ ॥१७॥
अर्थ-जब सख्यात हजार सागर से हीन अन्त कोडाकोडी प्रमाण स्थिति सत्त्व होता है उस समय मे उपशमसम्यक्त्व गुण को ग्रहण करता है ।
___ आगे देशसंयम व सकलसयमके साथ प्रथमोपशमसम्यक्त्व ग्रहण करनेवाले जोवके स्थितिसत्त्व को कहते हैं
तट्ठाणे ठिदिसत्तो आदिमसम्मेण देससयलजमं । पडिवज्जमाणगस्स वि संखेज्जगुणेण होणकमो ॥६॥
अर्थ-उसी स्थान मे यदि देशसयम सहित प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करे तो उसके पूर्वोक्त स्थितिसत्त्व से सख्यातगुणा हीन स्थिति सत्त्व होता है और यदि सकलसयम सहित प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त करे तो उसके उससे भी सख्यातगुणा हीन स्थिति सत्त्व होता है।
विशेषार्थ-अनन्तगुणी विशुद्धि की विशेषता के कारण स्थितिखण्डायाम सख्यातगुणा होता है उससे घटाई हुई अवशिष्ट स्थिति सख्यातवे भाग होती है ।
१. ज. ध पु १२ पृ २६३-२६६ । क पा मुत्त पृ ६२६-३० । २. घ. पु ६ पृ २६८ ।