________________
लब्धिसार
[ गाथा १०१
समाधान—यह कोई दोष नही है, क्योकि मनुष्य और तिर्यचों की अपेक्षा यह गाथा सूत्र प्रवृत्त हुआ है । तिर्यच और मनुष्यो के सम्यक्त्व प्राप्त करते समय तीन शुभ लेश्याओं को छोडकर अन्य लेश्याए सम्भव नहीं है, क्योकि अत्यन्त मन्द विशुद्धि द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले जीवके भी वहा जघन्य पीतलेश्या का नियम है । शका - यहा देव और नारकियो की विवक्षा क्यों नही है ?
८६ ]
समाधान - देव और नारकियो की विवक्षा नही की, क्योकि उनके ग्रवस्थित लेश्याभावका कथन करने के लिये यहां परिवर्तमान सर्व लेश्यावाले तिर्यच और मनुष्यो की ही प्रधान रूप से विवक्षा है । अथवा देवो मे तो यथायोग्य तीन शुभलेश्यारूप परिणाम ही होता है । इसलिये उक्त कथन का वहा कोई व्यभिचार नही आता । नारकियो मे भी अवस्थित स्वरूप कृष्ण, नील और कापोतलेश्यारूप परिणाम होते है, वहा तीन शुभलेश्यारूप परिणाम असम्भव ही है इसलिए उनमे यह गाथा सूत्र प्रवृत्त नही होता त तिर्यंचो और मनुष्यो को विषय करनेवाली ही यह गाथा है' ।
यद्यपि गाथा सूत्र मे कषाय और वेद का कथन नही किया तथापि उनका कथन किया जाता है, क्योकि इस गाथा सूत्र मे एकदेश कथन किया गया है अर्थात् यह देशामर्शक गाथा सूत्र है ।
दर्शनमोह का उपशम करनेवाले जीवके क्रोधादि चारो कषायो मे से अन्यतर कषायपरिणाम होता है, किन्तु वह नियमसे हीयमान कषायवाला होता है, क्योकि विशुद्धि से वृद्धि को प्राप्त होनेवाले के वर्धमान कषाय के साथ रहने का विरोध है । इसलिए क्रोधादि कषायो के द्विस्थानीय अनुभागोदय से उत्पन्न हुए तत्प्रायोग्य मन्दतर कषाय परिणाम का अनुभवन करता हुआ सम्यक्त्व को उत्पन्न करने के लिये आरम्भ करता है ।
सम्यक्त्वोत्पत्ति मे व्यापृत हुए जीवके तीन वेदो मे से कोई एक वेद परिणाम होता है, क्योकि द्रव्य और भाव की अपेक्षा तीन वेदो मे से ग्रन्यतर वेदपर्याय से युक्त जीवके सम्यक्त्वोत्पत्ति में व्यापृत होनेके विरोध का प्रभाव है ।
१
२
३
धपु १२ पृ
जव पु १२ पृ
व पु १२ पृ
२०५ व ३०६ ।
२०२ - २०३ एव क पा सुत्त पृ ६१६ ।
२०६, के पा सुत्त पृ. ६१६ सूत्र १६