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प्र स. चूलिका ] लब्धिसार
[ १०१ मिच्छत्तपच्चयो खलु बंधो उवसामगस्स बोद्धव्वो।
उवसंते प्रासाणे तेण परं होवि भजिदव्यो ॥४॥ अर्थ-दर्शनमोहनीयका उपशम करने वाले जीवके नियम से मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध जानना चाहिए, किन्तु उसके उपशान्त रहते हुए मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध नही होता तथा उपशात अवस्था के समाप्त होने के पश्चात् मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध भजनीय है।
विशेषार्थ-यह कषायपाहुड की १०१ वी गाथा है। मिथ्यात्व है प्रत्यय अर्थात् कारण जिसका वह खलु अर्थात् स्पष्टरूप से मिथ्यात्व प्रत्यय बन्ध है, जो दर्शनमोह उपशामक के प्रथम स्थिति के अन्तिम समय तक होता है।
शंका-मिथ्यात्व प्रत्ययबन्ध किन कर्मों का होता है ?
समाधान-मिथ्यात्व और ज्ञानावरणादि शेष कर्मों का मिथ्यात्वप्रत्यय बध होता है । यद्यपि यहा पर (मिथ्यात्वगुणस्थानमें) शेष असंयम, कषाय और योग का भी प्रत्ययपना है तथापि मिथ्यात्व की ही प्रधानता की विवक्षामें इसप्रकार कहा गया है, क्योकि ऊपरके गुणस्थानो मे मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध के अभाव का कथन करनेवाला यह वचन है।
'उवसते आसाणे' दर्शनमोहनीय के उपशात होने पर अन्तरायाम में प्रवेश करनेके प्रथम समय से लेकर मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध का आसान अर्थात् विनाश ही है। वहां मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध नही है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । अथवा 'उवसंते' दर्शनमोहनीय का उपशम होने पर सम्यग्दृष्टि जीव के और 'आसाणे' अर्थात् सासादन सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध नहीं होता इतना वाक्यशेष का योग करके सूत्रार्थ का समर्थन करना चाहिए।
तेण परं होदि भजिवन्यो' अर्थात् उपशमसम्यक्त्वकाल के समाप्त होने पर मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध भजनीय है, क्योकि उपशमसम्यक्त्व कालके क्षीण होने पर दर्शनमोह की तीनो प्रकृतियो मे से किसी के होने पर कदाचित् ( मिथ्यात्वोदय होने पर ) मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध होता है, कदाचित् (सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय होने पर) अन्य ( असंयम, कषाय, योग ) निमित्तक बन्ध होता है । अत'