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प्र स. चूलिका ]
लब्धिसार सम्मत्तपढमलंभो सव्वोवसमेण तह विय?ण।
भजियव्वों य अभिक्खं सवोवसमेण देसेरणं ॥२॥ अर्थ-सम्यक्त्व का प्रथम लाभ सर्वोपशम से ही होता है तथा विप्रकृष्ट जीव के द्वारा भी सम्यक्त्व का लाभ सर्वोपशम से ही होता है, किन्तु शीघ्र ही पुन. पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव सर्वोपशम और देशोपशम से भजनीय है।।
विशेषार्थ-यह कषायपाहुड की १०४ वी गाथा है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को जो सम्यक्त्व का प्रथम लाभ होता है वह सर्वोपशम से ही होता है, क्योकि उसके अन्यप्रकार से सम्यक्त्व की प्राप्ति सम्भव नही है । ''तह विय?ण' मिथ्यात्व को प्राप्त हो जो बहुत काल के पश्चात् सम्यक्त्व को प्राप्त करता है वह भी सर्वोपशम से ही प्राप्त करता है। इसका भावार्थ इस प्रकार है-सम्यक्त्व को ग्रहणकर पुन मिथ्यात्व को प्राप्त होकर सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की उद्वेलना कर पल्योपम के असख्यातवेभाग प्रमाण काल द्वारा या अर्द्ध पुद्गले परावर्तन काल द्वारा जो सम्यक्त्वको प्राप्त करता है वह भी सर्वोपशम से ही प्राप्त करता है ।
'भजियवो य अभिक्ख' जो सम्यक्त्वसे पतित होता हुआ पुन पुन सम्यक्त्वग्रहण के अभिमुख होता है, वह सर्वोपशम से अथवा देशोपशमसे सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, क्योकि यदि वह वेदक प्रायोग्यकाल के भीतर ही सम्यक्त्व को प्राप्त करता है तो देशोपशम से, अन्यथा सर्वोपशमसे प्राप्त करता है । इसप्रकार वहा भजनीयपना देखा जाता है । तीनो (मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व) कर्म प्रकृतियो के उदयाभावका नाम सर्वोपशम है और सम्यक्त्वप्रकृति के देशघातिस्पर्धको का उदय देणोपशम कहलाता है।
मिच्छत्तवेदरणीय कम्म उवसामगस्स बोद्धव्व ।
उवसंते प्रासाणे तेण परं होदि भजिदव्वो ॥३॥ अर्थ-दर्शनमोहनीय का उपशम करने वाले जीव के मिथ्यात्वकर्म का उदय जानना चाहिए । दर्शनमोह की उपशान्त अवस्था मे मिथ्यात्वकर्म का उदय नही होता। उपशमसम्यक्त्वं की प्रासादना के अनन्तर उसका ( मिथ्यात्वका) उदय भजनीय है।
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गो क गा. ६१४-१५ । ज ध पु १२ पृ ३१६-१७ ।