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लब्धिसार
[ गाथा १०८-१०६ में नियम नहीं है, किन्तु दोनो ही उपयोगो के साथ सम्य ग्मिथ्यात्व गुण को प्राप्त होता है।
जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर और आगामी आयु को बांधकर सम्यग्मिथ्यात्व भाव को प्राप्त होता है वह सम्यक्त्व के साथ ही मरण को प्राप्त होकर उस गति से निकलता है। अथवा जो मिथ्यादृष्टि होकर और आगामी. आयु का बध करके नम्यग्मिथ्यात्वभाव को प्राप्त होता है वह मिथ्यात्व के साथ ही मरण को प्राप्त हो उम गतिसे निकलता है । सम्यग्मिथ्यात्व में मरण नही है और आयु बन्ध भी
अब मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयका कार्य दो गाथाओंमें कहते हैं'मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणं होदि ।
ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जुरिदो ॥१०॥ "मिच्छाइट्ठी जीवो उवइट्ठ पवयणं ण सदहदि । सद्दहदि असब्भावं उवइ8 वा अणुवइ8 ॥१०॥
अर्थ-मिथ्यात्व का वेदन करनेवाला जीव विपरीत श्रद्धानवाला होता है । जैने ज्वर से पीडित मनुष्य को मधुर रस नही रुचता है वैसे ही मिथ्यादृष्टि को धर्म नहीं रचता। मिथ्यादृष्टिजीव नियम से उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान नहीं करता, उपदिष्ट या अनुपदिप्ट असद्भाव का श्रद्धान करता है। . .
विशेषार्थ- उपर्युक्त गाथा सख्या १०८ जयधवल पु. १२ पृ. ३२३ पर उद्धत गाथा न २ के समान है तथा गाथा १०६ कषायपाहुड के गाथा १०८ के सदृश होने से कपायपाहृड गाथा १०८ के अनुसार यहा विशेषार्थ दिया जा रहा है। १ ज प पू १२ पृ ३२४ । २ प.पु ५१:१ ध, पु ४ पृ ३४३ । 2. प पु ७ पृ ४५८, घ पु ४ पृ. ३४३, गो. जी गाथा २४ । मिश्रगणस्थानमे मारणान्तिक
समुद्घात भी नही होता है। १ ज ध पु १२ पृ ३२३ । ५ जप पु १२१ ३२२ गा १० । ६ गियमा ति पाठान्तरम् ।