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गाथा १०६ ] लब्धिसार
[६७ जो नियम से मिथ्यादृष्टि जीव है वह नियम अर्थात् निश्चय से जिनेद्र द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान नही करता है ।
शङ्का-इसका क्या कारण है ?
समाधान- क्योकि वह दर्शनमोहनीय ( मिथ्यात्व ) के उदय के कारण विपरीत अभिनिवेशवाला है । इसलिये वह 'सद्दहइ असब्भावं' अपरमार्थ स्वरूप असद्भूत अर्थ का ही मिथ्यात्वोदयवश श्रद्धान करता है । वह 'उवइ8 वा अणुवइट्ठ' अर्थात् उपदिष्ट या अनुपदिष्ट दुर्मार्गका ही दर्शनमोह ( मिथ्यात्व ) के उदयसे श्रद्धान करता है। इसके द्वारा व्युद्ग्राहित और इतर इन दो भेदो से मिथ्यादृष्टि का कथन किया गया है । कहा भी है
तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं तच्चाणं होइ अत्थाणं ।
संसइयमभिग्गहियं अरणभिग्गहिय ति तं तिविहं ।। अर्थ-तत्त्वो का और अर्थों का जो अश्रद्धान है वह मिथ्यात्व है । सशयिक, अभिगृहीत और अनभिगृहीत के भेद से वह मिथ्यात्व तीन प्रकार का है ।
जिसप्रकार पित्तज्वर वाले मनुष्य को दूध आदि मधुर पदार्थ रुचिकर नहीं होते, क्योकि पित्त के कारण मिष्ट पदार्थ भी कटुक प्रतीत होता है। इसीप्रकार मिथ्यादष्टिजीव को तत्त्वार्थ का यथार्थ उपदेश रुचिकर नही होता, क्योकि उसके हृदय मे मिथ्याश्रद्धान बैठा हुआ है । इसलिये उसको मिथ्यामार्ग ही रुचता है ।
__“जीवादि नौ पदार्थ का स्वरूप जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ यथार्थ है या नहीं" इत्यादिरूप से जिसका श्रद्धान दोलायमान हो रहा है वह संशयिक मिथ्यादष्टि है। जो कुमार्गियों के द्वारा उपदिष्ट पदार्थो का श्रद्धान करता है वह अभिगृहीत मिथ्यादृष्टि है । जो उपदेश के बिना शरीर आदि में अपनेपन की कल्पना करता है वह अनभिगृहोत मिथ्यादृष्टि है'।
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ज.ध. पु. १२ पृ. ३२२-२३ ।