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८४ ] लब्धिसार
[ गाथा १०१ दर्शनमोहोपणामक के उपयोग, योग और लेश्या परिणामगत विशेष कथन किया गया है । 'सायारे वटुवो ऐसा कहने पर दर्शनमोह को उपशमविधिको प्रारम्भ करने वाला जीव अध.प्रवृत्तकरण के प्रथमसमयसे अन्तमु हूर्त काल पर्यन्त प्रस्थापक कहलाता है' ।
__ जिसके द्वारा उपयुक्त होता है उसका नाम उपयोग है । आत्मा के अर्थग्रहणरूप परिणाम का नाम उपयोग है । वह उपयोग साकार अोर अनाकार के भेद से दो प्रकार का है ।' साकार तो जानोपयोग है और अनाकार दर्शनोपयोग । इनके क्रमश मतिनानादि और चक्षुदर्शनादिभेद भी है । दर्शनमोहोपशामना विधि का प्रस्थापक जीव नियम से जानोपयोग मे उपयुक्त होता है, क्योकि अविमर्शक और सामान्यमात्रग्राही चेतनाकार उपयोग के द्वारा विमर्शक स्वरूप तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रति अभिमुखपना नही बन सकता । अर्थात् प्रस्थापक के अविचार स्वरूप दर्शनोपयोग की प्रवृत्ति का विरोध है। इसलिये कुमति, कुश्रु त और विभङ्गज्ञान मे से कोई एक साकारोपयोग ही होता है, अनाकार उपयोग नही होताः। इस वचन द्वारा जागृत अवस्था से परिणत जीव ही सम्यक्त्व की उत्पत्ति के योग्य होता है, अन्य नही, क्योकि निद्रारूप परिणाम सम्यक्त्वोत्पत्ति के योग्य विशुद्ध परिणामो से विरुद्धस्वभावी है । इसप्रकार प्रस्थापक के साकारोपयोग का नियम करके, निष्ठापकरूप
और मध्यम अवस्था में साकारोपयोग और अनाकारोपयोग में से अन्यतर--उपयोग के साथ भजनीयपने का कथन करने के लिये, गाथा में 'णिवगो मज्झिमो य भजणिज्जो' यह वचन कहा है । दर्शनमोह के उपशामनाकरण को समाप्त करने वाला जीव निष्ठापक होता है अर्थात् समस्त प्रथमस्थितिको क्रम से गलाकर अन्तरं प्रवेश के अभिमुख जीव 'निष्टापक होता है । वह साकारोपयोग से उपयुक्त होता है या अनाकारोपयोग मे, क्योकि इन दोनों उपयोगो मे से किसी एक उपयोग के साथ निष्ठापक होने मे विरोध का अभाव है इसलिये भजनीय है। इसी प्रकार मध्यम अवस्थावाले के भी कथन करना चाहिए। प्रस्थापक और निष्ठापकै पर्यायों के अन्तराल काल मे प्रवर्तमान जीव मध्यम कहलाता है। दोनो ही उपयोगो का क्रम से परिणाम होने मे विरोध का अभाव होने से भजनीय है ।
. . . . १ क पा नुत्त पृ ६३२, ज ध पु १२ पृ ३०४ । २ ज. ध पृ. १२ १ २०३, गो. जो गाथा ६७२-७३, प्रा.प स. अ. १ गा. १७८ पृ. ३७ ।। : ज.धः पु. १२ पृ २०४, के. पा. सुत्त पृ"६३२ ।' ४ ज घ. पु. १२ पृ. ३०५ ।