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गाथा १०६ ]
लब्धिसार अर्थ-सम्यक्त्व प्रकृति के उदय मे तत्त्वों का और पदार्थो का अथवा तत्त्वार्थ का चल-मलिन-प्रगाढ सहित श्रद्धान करता है तथा स्वयं न जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भत अर्थ का भी श्रद्धान करता है। सूत्र के द्वारा समीचीनरूप से दिखलाये गये उस अर्थका जब यह जीव श्रद्धान नही करता उस समय से लेकर वही जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है।
विशेषार्थ-सम्यक्त्वप्रकृति के द्वारा सम्यग्दर्शनकी स्थिरता और निष्कांक्षता का घात होता है । स्थिरता का घात होने से चल और अगाढ़ दोष उत्पन्न होते है । निष्काक्षता का घात होने से मल दोष उत्पन्न होता है । जैसे वृद्धपुरुष लाठी को पकडे रहता है, किन्तु कांपती रहती है, स्थिर नहीं रहती । इसीप्रकार वेदक सम्यग्दष्टि का तत्त्वार्थश्रद्धान स्थिर नही रहता-चलायमान रहता है । स्थिरता के घात के कारण श्रद्धा भी दृढ नही होती। निष्कांक्षता का घात होने से शंका, काक्षा आदि दोष सम्यक्त्व को मलीन करते रहते है। इसीलिये गाथा में कहा गया है कि सम्यक्त्वप्रकृति के उदय मे चल-मलिन व अगाढ़ सहित तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है । "सहहइ असम्भाव" ऐसा कहने पर असद्भूत अर्थ का भी सम्यग्दृष्टि जीव गुरुवचन को प्रमाण करके स्वयं नही जानता हुआ श्रद्धान करता है। इस गाथा के उत्तरार्ध द्वारा आज्ञासम्यक्त्वका लक्षण कहा गया है ।
शंका-अज्ञानवश असद्भूत अर्थ का ग्रहण करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ?
समाधान-यह परमागम का ही उपदेश है ऐसा निश्चय होने से उस प्रकार स्वीकार करने वाला वह जीव परमार्थ का ज्ञान नही होने पर भी सम्यग्दृष्टिपने से च्युत नहीं होता।
यदि पुनः कोई परमागमके ज्ञाता विसंवादरहित दूसरे सूत्र द्वारा उस अर्थ को यथार्थ रूप से बतलावे फिर भी वह जीव असत् आग्रहवश उसे स्वीकार नही करता है तो उस समय से वह जीव मिथ्यादृष्टि पद का भागी हो जाता है, क्योकि वह प्रवचन विरुद्ध बुद्धिवाला है ऐसा-परमागम का निश्चय है। इसलिये यह ठीक
१. को भागो सम्मत्तस्स तेण घाइज्जदि ? थिरतं णिक्कंक्खत्त । (ज. ध. पु. ५ .पू १३०)