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लब्धिसार
[- गाथा १०४
विशेषार्थ - अन्तरायामका सख्यातवां भाग उपशम सम्यक्त्व का काल है । उपशम सम्यक्त्व का काल समाप्त हो जाने पर भी अन्तरायाम का सख्यात बहुभाग शेष रहता है जहां पर दर्शनमोहनीय कर्म के सत्त्व का भी अभाव है । अन्तरायाम के ऊपर द्वितीय स्थिति मे दर्शनमोहनीय कर्म का द्रव्य है जिसका अपकर्षण करके अन्तरायामको पूरता है । अर्थात् शेष अन्तरायाम काल मे अपकप्ति द्रव्य का क्षेपण करके दर्शनमोहनीय कर्म का सत्त्व स्थापन करता है । मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीन प्रकृतियो मे से जिस प्रकृति का उदय प्रारम्भ हो जाता है उस प्रकृति के द्रव्य को उदय स्थिति से लेकर सर्व स्थितियो मे देता है और जिन दो प्रकृतियो का उदय नही है उनके द्रव्य को उदयावलि से बाह्य सर्व स्थितियो मे देता है, किन्तु उदयावलि मे नही देता । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रतिस्थापना मे तीनो प्रकृतियोका द्रव्य नही दिया जाता ।
यदि मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होता है तो यह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है । यदि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होता है तो सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो जाता है । सम्यक्त्वप्रकृति के उदय होने से यह जीव वेदक सम्यग्दृष्टि अथवा क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है' ।
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प्रोक्कविदइगिभागं समपट्टीए विसेसहीणकमं । सेसासंखाभागे विसेसहीणेण विवदि सम्वत्थ ॥ १०४ ॥
अर्थ- - अपकृष्ट द्रव्यका एक भाग तो चय (विशेष) हीन क्रम से उदयावलि मे देना शेष असख्यात बहुभाग सर्वत्र विशेष ( चय) हीन क्रम से दिया जाता है ।
विशेषार्थ - यदि उदय रूप सम्यक्त्वप्रकृति होवे तो उसके द्रव्यमे अपकर्षण भागहारका भाग देकर उसमे से बहुभागप्रमाण द्रव्य यथावस्थित ही रहे । एक भाग को असख्यातलोकका भाग देकर उसमे से एकभाग प्रमाण द्रव्य 'उदयावलिस्स दव्वं" इत्यादि सूत्र द्वारा जैसा पूर्वमे विधान कहा था वैसे ही उदयावलिके निषेकोमे चय हीन क्रमसे निक्षिप्त करना । अपकर्षित द्रव्यमे से अवशिष्ट बहुभागमात्र जो द्रव्य है उसे
१ जधपु १२ पृ ३१५ के आधार से । क पा सुत्त पृ ६३५, घ पु ६ पृ २४१ ।
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ल सा. गा ७१ ।