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पाथा १०७ ]
लब्धिसार पना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि अनेकान्त बिना उसके अर्थक्रियाकारीपना नही वन सकता जबकि समीचीन और असमीचीनरूप इन दोनों श्रद्धाओं का क्रमसे एक आत्मा मे पाया जाना सम्भव है तो कदाचित् किसी आत्मा मे एक साथ भी उन दोनो का रहना बन सकता है। यह सर्वकथन काल्पनिक नही है, क्योकि पूर्व स्वीकृत देवता के अपरित्याग के साथ-साथ अरिहन्त भी देव है ऐसा अभिप्रायवाला पुरुष पाया जाता है' *
शंका-श्रीपशमिकादि पाच भावो मे से सम्यग्मिथ्यात्व कौन सा भाव है ?
समाधान-क्षायोपशमिक भाव है, क्योकि प्रतिबन्धी कर्म का उदय होने पर भी जीव के गुण का जो अवयव पाया जाता है वह गुणाश क्षायोपशमिक कहलाता है । गुणो के सम्पूर्णरूप से घातने की शक्ति का प्रभाव क्षय कहलाता है । क्षयरूप ही जो उपशम होता है वह क्षयोपशम कहलाता है, उस क्षयोपशम मे उत्पन्न होने वाला भाव क्षायोपशमिक कहलाता है।
शंका-सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के उदय मे रहते हुए सम्यक्त्व की कणिका भी अवशिष्ट नही रहती है, अन्यथा सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सर्वघातीपना बन नही सकता। इसलिये सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक है यह कहना घटित नही होता। - समाधान-सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के उदय होने पर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक करचित् अर्थात् शवलित या मिश्रित जीव परिणाम उत्पन्न होता है, उसमे जो श्रद्धानाश है वह सम्यक्त्व का अवयव है उस श्रद्धानाश को सम्यग्मिथ्यात्व कर्मोदय नष्ट नहीं करता, इसलिये सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक है.।
शंका-अश्रद्धानभाग के बिना केवल श्रद्धानभाग के ही 'सम्यग्मिथ्यात्व' यह सज्ञा नहीं है, इसकारण सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक नही है।
समाधान-उक्त प्रकार की विवक्षा होने पर सम्य ग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक भले ही न होवे, किन्तु अवयवी के निराकरण और अवयवके अनिराकरण की
१. ध. पु. १ सूत्र ११ की टीका पृ १६७-१६८ । 'सूर्य को अर्घ देना ...... इस प्रकार की अनेक
मूढताए जाननी चाहिये । कोई यदि इन मूढतानो का सर्वथा त्याग नही करता (और सम्यक्त्व के साथ-२ किसी मूढता का भी पालन करता है) उसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि मानो । उपासकाध्ययन । कल्प ४ । श्लोक १४४ ।