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५२ ] लब्धिसार
[ गाथा १०० के कालमे छह प्रावलि शेष रहने पर वहा से सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति किन्ही भो जीवो मे सम्भव देखी जाती है । "णीरासाणो य खीणम्मि" अर्थात् उपशम सम्यक्त्व का काल क्षीण होने पर यह जीव सासादनगुणस्थानको नियम से नही प्राप्त होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-ऐसा किस कारण से है ?
समाधान-क्योकि उपशम सम्यक्त्वके काल मे जघन्यरूप से एक समय शेष रहने पर और उत्कृष्टरूप से छह प्रावलि काल शेप रहने पर सासादनगुणस्थान परिणाम होता है, इसके बाद नही ऐसा नियम देखा जाता है । अथवा “णीरासागो य खीणम्मि" ऐसा कहने पर दर्शनमोहनीयका क्षय होने पर यह जीव निरासान ही है, क्योकि उसके सासादनगुणस्थानरूप परिणाम सम्भव नहीं है ऐसा यहा ग्रहण करना चाहिये । कारण कि क्षायिक सम्यक्त्व अप्रतिपातस्वरूप होता है और सासादन परिणाम के उपशम सम्यक्त्व पूर्वक होनेका नियम देखा जाता है ।
आगे सासादनके स्वरूप एवं कालका कथन करते हैं*उवसमसम्मत्तद्धा छावलिमेत्ता दु समयमेत्तोत्ति । अवसि? आसाणो अणअण्णदरुदयदो होदि ॥१०॥
अर्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके काल मे उत्कृष्टकाल छह श्रावलि और जघन्यकाल एक समय मात्र अवशेष रह जाने पर अनन्तानुवन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ इन चारों मे से किसी एक के उदय होने से सम्यक्त्व की प्रासादना ( विराधना ) होकर सासादन गुणस्थान होता है ।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन की घातक मिथ्यात्वप्रकृति व अनन्तानुबन्धीकपाय चतुष्क है । "मिथ्यात्व नाम विपरीताभिनिवेश । स च मिथ्यात्वादनन्तानुबन्धिनश्चोत्पद्यते ।" (ध पु १ सूत्र ११६ की टीका ) विपरीत अभिनिवेश का नाम मिथ्यात्व है और वह विपरीताभिनिवेश मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन दोनो कर्मो
१. ज ध पु १२ पृ ३०२-३०३ । एव ध पु ६ पृ २३६ । २ पाठान्तरेणाऽत्रोक्तभावो अन्यत्रापि दृश्यते, प्रा. प स. पृ ६३३ श्लो ११; गो जी. गा १६ । ३ ज. ध पु ४ पृ २४, ज. ध पु १० प १२३-२४; ज ध. पु. १२ पृ ३०३ ।