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लब्धिसार
गाथा ६६ ]
GË पढमापुवजहएणढिदिखंडमसंखसंगुणं तस्स । . अवरवरदिदिबंधा तढिदिसत्ता य संखगुणियकमा ॥६६॥
अर्थ-अपूर्वकरण के प्रथम समय मे जघन्य स्थितिखण्ड असख्यातगुणा है, इससे सख्यातगुणा जघन्य स्थितिबन्ध है। इससे सख्यातगुणा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है, इससे सख्यातगुणा जघन्य स्थितिसत्त्व तथा उससे सख्यातगुणा उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व है । इसप्रकार सख्यात गुणित क्रम से स्थान जानना ।
विशेषार्थ-गाथामें "पढमापुवजहणे ट्ठिदिखंडमसखेसगुणं” पाठ है । ध. पु. ६ पृ. २३७ पर "अपुन्वकरणस्स पढमसमए जहण्णो ठिदिखडप्रो असखेज्जगुणो" यह पाठ है । इन दोनो का अर्थ है कि "अपूर्वकरण के प्रथम समयमे जघन्य स्थितिखंड असख्यातगुणा है, किन्तु ज. ध. पु. १२ पृ २६३ पर चूर्णिसूत्र "जहण्णय ट्ठिदिखडयमसखेज्जगुण" पाठ है। इसमे "पढमापुव्व" अर्थात् 'अपूर्वकरणके प्रथम समयमे' यह पाठ नही है। इस पाठ के अभाव मे प्रथम स्थिति के अन्त मे होने वाले 'स्थितिखण्ड' का ग्रहण होता है, क्योकि अपूर्वकरण के प्रथम स्थितिखण्ड की अपेक्षा प्रथम स्थिति के अन्त का स्थितिखण्ड जघन्य है। यह जघन्य स्थिति खण्ड भी पूर्वोक्त उत्कृष्ट आबाधा से असख्यातगुणा है । जयधवला टीका मे कहा भी है-"मिथ्यात्व की प्रथमस्थिति अल्प शेष रहने पर प्राप्त हुए अन्तिमस्थितिकाण्डक का और शेषकर्मो के गुणसक्रमण काल के शेष रहने पर प्राप्त हुए अन्तिम स्थितिकाडक का जघन्य स्थितिकाण्डकरूपसे ग्रहण करना चाहिए । यह पल्योपमके सख्यातवेभाग प्रमाण होनेसे पूर्व में कही गई उत्कृष्ट आबाधा से असंख्यातगुणा है ।
यद्यपि गाथामे 'उत्कृष्ट स्थिति खण्ड' का कथन नही है, किन्तु ध पु. ६ पृ. २३७ व जयवंवल पु. १२ पृ २६४ के आधारसे यहा उसका कथन किया जाता हैअपूर्वकरण का 'उत्कृष्ट स्थितिखण्ड' जघन्य स्थितिखण्ड से सख्यातगुणा है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिखण्ड का प्रमाण सागरोपम पृथक्त्व है। उससे जघन्य स्थितिवन्ध सख्यातगुणा है, क्योकि अन्तिमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व का जघन्य स्थितिबंध और शेष कर्मों का गुणसक्रम के अन्तिम समय का जघन्य स्थितिवन्ध अन्त' कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण है । उससे उत्कृष्टस्थितिबन्ध सख्यातगुणा है, क्योकि सभी कर्मों का अपूर्वकरण के प्रथम समय मे जो स्थितिबन्ध होता है वह पूर्व मे कहे गये जघन्य