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गाथा ८२-८३ ] लब्धिसार
[ ६७ जितने अनुभाग-स्पर्धको को जघन्यरूपसे अतिस्थापित कर उनसे नीचे के स्पर्धकरूप से अपकर्षित करता है वे जघन्य अतिस्थापना विषयक स्पर्धक एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर के स्पर्धको से अनन्तगुणे होते है, क्योंकि जघन्य अतिस्थापना के भीतर अनन्त प्रदेशगुणहानि स्थानान्तरोंका अस्तित्व पाया जाता है । जघन्य अतिस्थापना स्पर्धको को छोडकर नीचे के शेष सर्व स्पर्धकोका निक्षेपरूपसे ग्रहण करने पर वे निक्षेप-स्पर्धक जघन्य अतिस्थापना सम्बन्धी स्पर्धकोसे अनन्तगुणे होते है.। अपूर्वकरणके प्रथम अनुभागकाण्डकमे काण्डकरूपसे जो स्पर्धक ग्रहण किये गये वे निक्षेपसम्बन्धी स्पर्धको से अनन्तगुणे होते है, क्योकि अपूर्वकरण के प्रथम समयमे द्विस्थानीय अनुभागसत्कर्म के अनन्तवे भागको छोड कर शेष अनन्त बहुभागको काडकरूप से ग्रहण किया है' ।..
अब प्रशस्त-अप्रशस्तप्रकृतिसम्बन्धी अनुभाग विशेषका कथन करते हैंपडमापुत्वरसादो चरिमे समये पसंस्थइदरण। रससत्तमणंतगुणं अणंतगुणहीणयं होदि ॥२॥
अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथम समय सम्बन्धी प्रशस्त-अप्रशस्त प्रकृतियो का जो अनुभाग सत्त्व है उससे अपूर्वकरण के चरम समय मे प्रशस्तप्रकृतियो का अनुभाग तो अनन्तगुणा बढता हुआ तथा अप्रशस्त प्रकृतियो का अनन्तगुणा हीन होता हुअा अनुभाग सत्त्व है।
विशेषार्थ-अपूर्वकरण में प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि होने के कारण प्रशस्त प्रकृतियो का अनन्तगुणा बढता अनुभाग सत्त्व है तथा अनुभागकाण्डकघात के माहात्म्य से अप्रशस्तप्रकृतियों का अनन्तवा भाग अनुभाग सत्व चरमसमय मे होता है ।
अब अनिवृत्तिकरण परिणामोंका स्वरूप और उसका कार्य कहते हैं'बिदियं व तदियकरणं पडिसमय एक्क एक्क परिणामो।- - - भएणं ठिदिरसखंडे अण्णं ठिदिबंधमाणुवई ॥३॥
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१. ज. ध. पु १२ पृ. २६२-६३ । २. ध. पु. ६ पृ २२६ । ३ ध पु. ६ पृ २२६-३० । ज. ध. पु. १२ पृ. २७१ ।