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लब्धिसार
: [ गाथा है। विशेषार्थ-दर्शनमोडनीय की प्रथम स्थिति के चरम समय में होने वाले नग अन्य कर्मों के गुणसक्रमण काल के अन्तिम समय में जो अनुभागकांडक होता है उमा बात करने का जो अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल है वह अन्तिम अनुभागखंडोत्कीरण पाल है जो कि आगे कहे जाने वाले अनुभाग काडकोत्कीरण काल से स्तोक है। इससे मोके नल्यात भागप्रमाण अर्थात् सख्यात आवलि विशेष से अधिक अपूर्वकरण के प्रथम समय मे प्रारम्भ होने वाले अनुभागकाडकोत्कीरण का काल है, क्योंकि अन्तिम पन्भागकाइक से विशेष अधिक क्रम से संख्यातहजार अनुभागकांडक नीचे उतरने पर उसकी उपलब्धि होती है । इससे सख्यातगुणा काल अन्तिम स्थितिकांडकोत्कीरण काल और स्थिति बन्धापसरण काल है ये दोनो परस्पर समान हैं, क्योंकि एक स्थितिकांडककाल के भीतर संख्यात हजार अनुभागकाण्डक होते है । मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति के अन्त मे होने वाला स्थितिकाडक और अन्य कर्मों का गुणसंक्रम काल के अन्त में होने वाला स्थितिकाण्डक, सो अन्तिम स्थितिकाण्डक काल है।
तत्तो पढमो महिमो पूरणगुणलेडिसीसपढमठिदी। संखेण य गुणियकमा उवसमगद्धा विसेसहिया ॥६॥
प्रर्य-चरम स्थितिकाण्डकोत्कीरण काल से प्रथमस्थितिकाण्डकोत्कीरण काल अधिक है । इससे सम्यक्त्वप्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र प्रकृति) के पूरण का काल मन्यात गुणा है। इससे गुणश्रेणीशीर्ष संख्यातगुणा है, इससे प्रथम स्थिति मन्चातगुणी है और इससे उपणम करने का काल विशेषाधिक है।
विशेषार्थ-यद्यपि गाथा में अन्तर करने का काल नही कहा गया है, किन्तु पायपाहुइ चूर्णिमूत्रकार ने 'अन्तर करने का काल' इस अल्पबहुत्व में ग्रहण किया है। उनके अनुसार गाथा ६३ मे पूर्वोक्त चरम स्थितिकाण्डकघात काल से अन्तर करने का पाल ग्रार वही पर होने वाले स्थितिवन्ध का काल ये दोनों परस्पर तुल्य होकर विशेष पित हैं, क्योंकि पूर्वोक्त काल से नीचे अन्तर्मुहर्तकाल पीछे जाकर इन दोनों कालो मी प्रवृत्ति होती है। उससे प्रथमस्थितिकाण्डकोत्कीरण काल और स्थिति बंध का
' उ पु १२ पृ २८६-८७ । .. 7. . पु. १२ पृ २८७ ॥