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गाथा ८७-८८ ]
लब्धिसार
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मे अतरसम्बन्धी प्रतिमफाली का पतन होने पर अंतर का कार्य सम्पन्न हो जाता है । इसके पश्चात् अनिवृत्तिकरण का जो काल शेष रहा वह प्रथमस्थितिप्रमाण है' । प्रथानन्तर अन्तरकरण की समाप्ति के पश्चात् होने वाले कार्य को कहते हैंअंतरकदपदमादो पडिसमयमसंखगुणिदमुवसमदि । गुणसंक्रमेण दंसणमोहणियं जाव पढमठिदी ॥८७॥
अर्थ- — अन्तर कर चुकने के पश्चात् प्रथम संमय से प्रथमंस्थिति के अन्त तक प्रतिसमय गुणसक्रमण के द्वारा असंख्यातगुणे क्रमसे दर्शनमोह को उपशमाता है ।
विशेषार्थ - इसप्रकार एक स्थितिकाडकोत्कीरण काल के बराबर काल द्वारा अन्तरकरण कर लेने के पश्चात् का समय प्रथमस्थिति का प्रथम समय है उसी प्रथमस्थिति के चरम समय पर्यन्त प्रतिसमय असख्यातगुणे क्रमसे अतरायाम के ऊपरवर्ती निषेकरूप द्वितीयस्थिति मे स्थित दर्शनमोहनीय के द्रव्य का उपशम करता है ।
यद्यपि यह जीव पहले ही अध प्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लेकर उपशामक ही है तथापि निवृत्तिकरणकाल के संख्यात बहुभागो के बीत जाने पर तथा सख्यातवां भाग शेष रहने पर अन्तर को करके वहा से लेकर दर्शनमोहनीय की प्रकृति, स्थिति और प्रदेशों का उपशामक होता है । करण परिणामो के द्वारा निशक्त किये गये दर्शनमोहनीय के उदयरूप पर्याय के बिना अवस्थित रहने को उपशम कहते है । उपशम करने वाले को उपशामक कहते है ।
अब दर्शनमोहनीय को उपशम क्रियामें पायी जाने वाली विशेषताका कथन करते हैं
पढमट्ठि दियावलि पडिभावलिसेसेसु णत्थि श्रागाला । पडियागाला मिच्छत्तस्स य गुणासेढिकरणं पि ॥ ८८ ॥
अर्थ - प्रथम स्थिति मे ग्रावली प्रत्यावली अर्थात् उदयावली और द्वितीयावली अवशेष रहने पर आगाल - प्रत्यागाल तथा मिथ्यात्व की गुरणश्रेणी नही होती है ।
१. ध. पु ६ पृ २३२ । एव ज. ध. पु. १२ पृ २७३-२७५ ।
२
ध पु. १२ पृ. २७६ ॥
३.
ज ध. पु. १२ पृ. २८० ।