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लब्धिसार
[ गाथा ८६ ५.] अन्नरकरण है, क्योंकि दर्शनमोहनीय की उपशामना में अन्य कर्मोके अन्तरकरणका अभाव है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका सत्कर्म वाला जीव यदि उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो उन कर्मप्रकृतियोंका भी अतरकरण इसी विधि से करता है, किन्तु उन प्रकृतियो सम्बन्धी नीचेकी एक आवलिप्रमाण (उदयावलिप्रमाण) स्थितियोके सिवाय उपरितन स्थितिसे लेकर ऊपर मिथ्यात्वके अन्तर सदृश अन्तर करता है।
अब अन्तरायामका प्रमाण एवं उसमें निषेक रचनाविधिका कथन करते हैंगुणलेडीए सीसं तत्तो संखगुण उवरिमठिदि च । हेटुवरिम्हि य आबाहुझिय बंधम्हि संछुहदि ॥८६॥
अर्थ--गुणश्रेणी शीर्ष और उससे सख्यातगुणे उपरितन निषेको के मिथ्यात्व द्रव्य को ग्रहण कर नीचे प्रथम स्थिति मे और ऊपर उस समय बधने वाले मिथ्यात्वकर्म की आवाधा को उल्लघ करके बधने वाले कर्मो के निषेकों के साथ द्वितीय स्थिति मे देता है।
विशेषार्थ- गुण श्रेणी शीर्ष अर्थात् अनिवृत्तिकरण काल से उपरिम विशेष अधिक गणश्रेणी निक्षेप उस सबको तथा गुरगश्रेणी शीर्ष से ऊपर अन्य भी सख्यात गुणी स्थितियो (निषेको) को अन्तर के लिए ग्रहण करता है । अन्तर के लिए जितनी स्थितियो को ग्रहण करता है उसकी अन्तरायाम सज्ञा है, उस अन्तरायाम से नीचे जितना अनिवृत्तिकरण का काल शेष है वह प्रथम स्थिति है। उस अन्तरायाम से जितनी उपरितन कर्मस्थिति है वह द्वितीय स्थिति है । अन्तर के लिये जो द्रव्य ग्रहण किया गया है उसको प्रतिसमय फालि रूप से प्रथम स्थिति व द्वितीय स्थिति मे देता है, किन्तु उस समय वधने वाले मिथ्यात्वकर्म की आबाधा मे नही देता है । अन्तरफालियों में असख्यातगुणे क्रम से द्रव्य को ग्रहण करता है। कुछ प्राचार्यो का यह मत है कि गुणश्रेणिशीर्प से नीचे सख्यातवे भाग स्थितियो का भी खण्डन करता है। एक स्थिनिकाण्डक उत्कीरणकाल के जितने समय है उतनी ही फालियो द्वारा अन्तर सम्बन्धी स्थितियों के द्रव्य का उत्कीरण किया जाता है । अन्तर करने के काल के चरम समय
१. 7 व. पु १२ १ २७५.