________________
लब्धिसार
[ गाथा ७७
६२ ]
गुणसंक्रमण विसंयोजनाके कालमे होता है । मिथ्यात्व' व सम्यग्मिथ्यात्व' का गुणसंक्रमण दर्शनमोहनीयकर्मकी क्षपरणामे होता है । शेष प्रशस्तप्रकृतियोंका गुणसंक्रमण उपशम व क्षपकश्र ेणियोमे होता है ।
विशेषार्थ - गाथा ७५ व क्षपणासार की गाथी ( ६ -४००) शब्दश. एक ही हैं । गाथा ७५ प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रकरण मे ग्राई है और गाथा ४०० का सम्बन्ध चारित्रमोहकी क्षपणासे है । वन्धरहित अप्रशस्तप्रकृतियोके द्रव्यका प्रतिसमय असंख्यातगुणित क्रमसे सक्रमण होना गुणसक्रमण है । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके श्रभिमुख जीवके गुणसक्रमण नही होता है । अनन्तानुबन्ध क्रोध- मान-माया व लोभका गुणसक्रमण तो श्रनन्तानुवन्धीकषायकी विसयोजना करनेवाले जीवके होता है । मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोका गुणसंक्रमण इनकी ही क्षपणा के समय होता है । अन्य अवद्ध्यमान अप्रशस्तप्रकृतियोंका गुणसंक्रमण उपगम व क्षेपक इन दोनो क्षेणियोंमें होता है । प्रशस्त व अप्रशस्तरूप उद्वेलनप्रकृतियोको उद्घोलनके अन्तिमका कमें गुणसमरण होता है ।
अवस्थितिकाण्डका स्वरूप कहते हैंपढमं अवरवर द्विदिखंडं पल्लरस संखभागं तु । सायरपुधत्तमेतं इदि संखसहस्सखंडाणि ॥ ७७ ||
अर्थ - पूर्वकरणके प्रथम स्थितिखण्ड आयामका प्रमाण जघन्यसे तो पल्यका सत्यातवाभाग और उत्कृप्टसे पृथक्त्वसागरप्रमाण है । अपूर्वकरणमे संख्यातहजार स्थितिखण्ड होते है ।
विशेषार्थ — ग्रध प्रवृत्तकरणके कालको व्यतीतकर अपूर्वकररणमें प्रविष्ट हुआ जीव प्रथमसमयमे ही स्थितिकांडक और अनुभागकाडकघात प्रारम्भ करता है, क्योकि पूर्वकरण की विशुद्धिसे युक्त परिणामोमे इन दोनोके घात करनेकी - हेतुता है ।
१. प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त कालतक उपशम सम्यक्त्वीके मिथ्यात्वका गुणसंक्रमण होता है । ( १९ पृ ४१५; जघ पु १२ पृ. २६४).
२निया को प्राप्त सम्यक्त्वीके · अन्तिम काण्डकमै द्विचरम फाली तक गुरणसक्रमण होता है । (घ. पु १६ पृ ४१६) टिप्पण नं० १-२ में कथित कार्य (गुरगसक्रम) क्षपरणामे तो होते ही हैं । (घ१६ पृ ४१५-१६ )
प्र
पु ዓ पृ ४०६ एव गो. क. गा. ४१६ ।
AMY