________________
गाथा ७४-७६ ] लब्धिसार
[ ६१ असंख्यातवाभाग है। इससे द्वितीयादि निषेकोमें क्रमसे चयहीन द्रव्य दिया जाता है । प्रत्येक गुणहानिमे दीयमान द्रव्य प्राधा-आधा होता जाता है ।
पडिसमयमोक्कड्ड दि भसंखगुणिदक्कमेण सिंचदि य । इदि गुणसेढीकरणं भाउगवज्जाण कम्माणं ॥७॥
प्रर्थ-प्रतिसमय असंख्यातगुणित क्रमसे द्रव्यका अपकर्षण करके सिचन करता है । आयुके बिना शेष कर्मोकी इसप्रकार गुणश्रेणि करता है ।
विशेषार्थ--उपरितन द्वितीयादि सर्वसमयोमे की जानेवाली गुणश्रोणिसंबधी प्रथमसमयके विधानानुसार कथन करना चाहिए, विशेषता केवल यह है कि प्रथमसमयमे अपकर्षित किये गये प्रदेशाग्रसे द्वितीयसमयमे असख्यातगुणित प्रदेशाग्र को अपकर्षित करता है, द्वितीयसमयके प्रदेशाग्रसे तृतीयसमयमे असख्यातगुणित प्रदेशाग्र अपकर्षित करता है । इसप्रकार यह क्रम सर्वसमयोमे जानना चाहिए। प्रथमसमयमें दिये जानेवाले प्रदेशाग्रसे द्वितीयसमयमे स्थिनिके प्रति दिये जानेवाला प्रदेशाग्र असख्यातगुणा है । इसप्रकार सर्वसमयोमे दिये जानेवाले प्रदेशाग्नका यही क्रम कहना चाहिए । इतनी और विशेषता है कि प्रतिसमय गलित होनेसे जो काल शेष रहे उसके आयामके अनुसार अपकर्षितद्रव्य निक्षिप्त करता है ।
प्रधानन्तर दो गाथानोंमें गुणसंक्रमणका कथन किया जाता हैपडिसमयमसंखगुणं दव्वं संकमदि अप्पसत्थाणं । बंधुझियपयडीणं बंधंतसजादिपयडीसु ॥७॥ एवं विह संक्रमणं पढमकसायाण मिच्छमिस्साणं । संजोजणखवणाए इदरेसिं उभयसेडिम्मि ॥७६॥
अर्थ-प्रतिसमय बन्धरहित अप्रशस्तप्रकृतियोका द्रव्य असख्यातगुणित क्रमसे वध्यमान स्वजाति प्रकृतियोंमें संक्रमण करता है । प्रथमअनन्तानुबन्धीकषायका ऐसा
ا
१. किमट्ठमाउगस्स गुणसेढिणिक्खेो गस्थि त्ति चे? ण सहावदो चेव । तत्थ गुणसेढिरिणक्खेव
पउत्तीए पसभवादो। (ज. प. पु. १२ पृ. २६४; क. पा. सु. पृ. ६२५) २. ध. पु. ६ पृ २२७ । ३. ज. ध प. १२ पृ. २६५ ।