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गाथा ७८ ]
लब्धिसारे
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शंका- पूर्वकरण में प्रथम स्थितिकांडकका प्रमारण एकप्रकारका है या उसमें जघन्य व उत्कृष्ट भेद भी सम्भव है ?
समाधान—– जघन्यरूपसे पत्यं के संख्यातवेभाग श्रायामवाला होता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी उपशामनाके योग्य सबसे जघन्य अन्त कोड़ा कोड़ो प्रमाण स्थितिसत्कर्म से आये हुए जीवके प्रथमस्थितिकाण्डकका 'आयाम पल्योपमका संख्यातवाभाग पाया जाता है, किन्तु उत्कृष्टरूपसे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण आयामवाला प्रथमस्थितिकांडक होता है, क्योकि पूर्वके जघन्यस्थिति सत्कर्मसे सख्यातगुणे स्थिति सत्कर्मके साथ ग्राकर पूर्वकरण में प्रविष्ट हुए जीवके उसकी उपलब्धि होती है ।
शका- - दोनो जीवोंके ही विशुद्धिरूप परिणामोंके समान होनेपर घात करने से शेष रहे स्थितिसत्कर्मोमे इसप्रकारकी विसदृशता क्यो होती है ?
समाधान - ऐसी आशका नही करना चाहिए, क्योकि संसारावस्थाके योग्य प्रध. करणविशुद्धियां सभी जीवोमे समान होती है, ऐसा कोई नियम नही है ' । आगे स्थितिकाण्डघातकी विशेषताएं कहते हैं
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भागवज्जाणं ठिदिघादो पढमांदु चरिमठिदिसत्तो । ठिदिबंधो य अपुत्रो होदि हु संखेज्जगुणहीणो ॥ ७८ ॥
अर्थ — प्रायुकर्मको छोड़कर शेषकमका स्थितिघात होता है । अपूर्वकरण के प्रथमसमयके स्थितिसत्त्व और स्थितिबन्धसे चरमसमयमे अपूर्व स्थितिसत्त्व तथा स्थितिबन्ध सख्यातगुणाहीन होता है ! |
विशेषार्थ–अपूर्वकरणमे 'संख्यातहजार स्थितिकाडक होते हैं, किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम स्थितिकाडक से दूसरा स्थितिकांडक सख्यातवांभागहीन है । इसप्रकार अन्तिम स्थितिकाडके प्राप्त होने तक पूर्व- पूर्वके स्थितिकाडकसे श्रागे-आगे का स्थितिकाडक विशेष - विशेषहीन होता जाता है । अपूर्वकरण के प्रथमस्थितिसत्कर्म से अन्तिमसमयवर्ती स्थिति संत्कर्म सख्यातगुणा होन है, क्योकि अपूर्वकरण के प्रथम - समयमे जो पूर्वकी अन्त कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमारण स्थिति है उसके संख्यातबहुभाग
१ ध. पु १२ पृ २६० ।
२. ज.ध.पु १२ पृ. २६८ ।