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लब्धिसार
[ गाथा ६५
५४ ]
करता है, क्योकि इसके ऊपर शक्ति स्थिति नही है । जो जीव इसप्रकार निक्षेप करता है उसके उत्कृष्टनिक्षेप होता है । इस निक्षेपका प्रमाण समयाधिक आवलि और आबाधासे हीन उत्कृष्ट कर्मस्थितिप्रमारण उत्पन्न होता है' ।
महवावलिगदव र ठिदिपढमणिसेगे वरस्स बंधस्स । विदयणिसे पहुदिसु णिक्खिते जेदुणिक्खेो ॥ ६५ ॥
अर्थ - अथवा, आवलि व्यतीत हो जानेपर उत्कृष्टस्थिति के प्रथमनिषेकका द्रव्य बंधनेवाली उत्कृष्टस्थितिके द्वितीयादि निषेकमे निक्षेपण करनेपर उत्कृष्टनिक्षेप होता है ।
विशेषार्थं - उत्कृष्ट प्राबाधा और एकसमयाधिक एकप्रावलि इनसे न्यून जितनी उत्कृष्टकर्मस्थिति है उतना उत्कृष्ट निक्षेप है । अथवा, ( इस " अथवा " शब्द से 'यहा आचार्यान्तर के मतानुसार निक्षेप का निरूपण किया गया है; ऐसा ज्ञातव्य है ) उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने के पश्चात् बन्धावली को बिताकर उसके प्रथम निषेक का उत्कर्षण किया । इस उत्कृष्यमाण निषेक के द्रव्य का, इस उत्कर्षण क्रिया के समय बुद्ध उत्कृष्टस्थितियुक्त समयप्रबद्ध के द्वितीयादि समस्त निपेको मे निक्षेपण किया; किन्तु चरम श्रावलीप्रमारण स्थिति मे निक्षेपण नही किया । ऐसा करने पर उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होता है और इस उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण एकसमयाधिक श्रावली और आबाधाकाल, ( वर्तमान मे बद्ध समयप्रबद्धका ) इन दोनोके योग से हीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप होता है ' ।
टिप्परण :
१
जध पु. ८ पृ. २५६ से २६१ । क पा सुत्त पृ ३१५; ज. पु ७ पृ. २४६; ज. ध. पु.
२५६ ।
२. यहा उत्कर्षण के विधान मे इतना ज्ञातव्य है कि - १. उत्कर्षरण बन्धके समय मे ही होता है । अर्थात् जव जिसकर्मका बन्ध हो रहा हो तभी उस कर्म के सत्ता मे स्थित कर्मपरमाणुओ का उत्कर्षण हो सकता है; अन्य का नही । उदाहरणार्थ -- यदि कोई जीव साता प्रकृति का बन्ध कर रहा है तो उस समय सत्ता मे स्थित साता प्रकृति के कर्मपरमाणुनो का ही उत्कर्षण होगा, असता के कर्म-परमाणु का नही । ( ज घ. ७।२५१ )
प.पू.