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ब्धिसार
वह बढ़ती हुई कितनी होती है सो हो कहते हैं— ओरिय तदो विदीया पिढमुक्कडणे वरं हेडा | अइच्छावरणमाबाद्दा समयजुदावलियपरिहीणा ॥६७॥
[ गाथा ६७-६६
अर्थ- वहासे उतरकर सत्कर्मसम्बन्धी द्वितीयावलिके प्रथमनिषेक ( जो वर्तमानसमयसे ग्रावलिकालके बाद उदयमे आवेगा ) का उत्कर्षरण होनेपर अधस्तन समयाधिकग्रावलिसे हीन प्राबाधाकालप्रमाण उत्कृष्ट - प्रतिस्थापना होती है |
विशेषार्थ - पूर्वके सत्कर्मसम्बन्धी उदयावलिके निषेकोका उत्कर्षरण सम्भव नही है । उदयावलिसे बाह्य- अनन्तर प्रथमनिषेकका उत्कर्षरण होनेपर वर्तमान उत्कृष्टस्थितिवाले कर्मबन्धकी उत्कृष्ट प्रबाधाके बाहर स्थित निषेकोमे उत्कर्षितप्रदेशोका निक्षेपण होता है । श्राबाधाकाल प्रतिस्थापना होती है । वर्तमानसमयमे बंध होने से ग्रावाधाकाल वर्तमान समयसे प्रारम्भ हो जाता, किन्तु जिसनिषेकका उत्कर्षरण हुआ है, वह वर्तमानसमयसे एक ग्रावलिके ऊपर स्थित है अत प्रबाधाकालमे से एक प्रावलि और एकसमय (उत्कर्षरण होनेवाले निषेकसम्बन्धी ) कम करनेपर उत्कृष्ट प्रतिस्थापना होती है ।
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उदाहरण -- उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण ४८ समय, उत्कृष्ट प्रबाधा १२ समय, ग्रावलिका प्रमाण ४ समय, वर्तमानमे ४८ समय उत्कृष्टस्थितिवाले कर्मका बन्ध हुआ है । वर्तमानसमय से १२ समयवाली उत्कृष्ट प्राबाधा प्रारम्भ हो जाती है, किन्तु जिस निषेकका उत्कर्षण हुआ है वह उदयावलि ( ४ समय ) से बाहरका प्रथमनिषेक अर्थात् वर्तमानसे पाचवा निषेक है, अत आबाधाकाल ( १२ समय ) मे से पाचसमय कम करनेपर (१२-५) ७ समय उत्कृष्ट प्रतिस्थापना है' ।
अब प्रकरण प्राप्त गुणश्रेणिनिर्जराका कथन करते हैंउदयामावलिम्हि य उभयाणं बाहरम्मि विवरण | लोयाणमसंखेज्जो कमलो उक्कडणो द्वारो ॥ ६८ ॥ श्रोक्कडिदगिभागे पल्लासंखेण भाजिदे तत्थ । बहुभागमिदं दव्वं उच्चरिल्लठिदीसु णिक्खिवदि ॥ ६६ ॥
घ. पु८ पृ २५६ ॥