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लब्धिसार
[ गाथा ४२-४५ ३२] प्रवृत्तकरणपरिणामोमें पूर्वोक्त चतुर्विध कार्योके उत्पादन करनेकी शक्तिका (विशुद्धिका) अभाव है; मात्र अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा प्रतिसमय विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ यह जीव अप्रशस्तकर्मोके द्विस्थानीय (नीब-काजीर) अनुभागको प्रतिसमय अनंतगुणाहीन वाचता है और प्रशस्तकर्मोका गुड-खांड-शर्करा-अमृतरूप चतु स्थानीय अनुभागको प्रतिसमय अनन्तगुणा-अनन्तगुणा बांधता है । अध प्रवृत्तकरणकालमें एक स्थितिबंधका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है । एक-एक स्थितिबन्धका काल पूर्ण होनेपर पल्योपमके संख्यातवेभागसे हीन अन्य स्थितिवन्ध होता है । इसप्रकार सख्यातसहस्रबार स्थितिबन्धापसरण हो जानेपर अध.प्रवृत्तकरणकाल समाप्त हो जाता है । अधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी स्थितिवन्धसे उसीका अन्तिमसमयसम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणाहीन होता है । यहीपर (अधःप्रवृत्तकरणके चरमसमयमे) प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुखजीवके जो स्थितिबन्ध होता है, उससे प्रथमोपशमसम्यक्त्वसहित संयमासयमके अभिमुख जीवका स्थितिवन्ध सख्यातगुणाहीन होता है, इससे प्रथमोपशमसम्यक्त्वसहित सकलसंयमके अभिमुख जीवका अधःप्रवृत्तकरणके चरमसमयसम्बन्धी स्थितिबन्ध सख्यातगुणाहीन होता है।
अब ८ गाथाओंमें अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी अनुकृष्टि और अल्पबहुत्व इन दो अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं
आदिमकरणद्धाए पडिसमयमसंखलोगपरिणामा । अहियकमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो हु पडिभागो ॥१२॥ ताए अधापवत्तद्वाए संखेज्नभागमेत्तं तु । अणुकट्टीए अद्धा णिव्वग्गणकडयं तं तु ॥४३॥ पडिसमयगपरिणामा णिव्वग्गणसमयमेत्तखंडकमा । अहियकमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो हु पडिभागो ॥४४॥ पडिखंडगपरिणामा पत्तेयमसंखलोगमेत्ता हु।
लोयाणमसंखेज्जा छठाणाणी विसेसेवि ॥४५॥ १ व.पु ६ पृ. २२२-२३ । ज ध पु १२ पृ २५८-५६ ।