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गाथा ४२ ]
लब्धिसार
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अल्पबहुत्व स्वस्थान और परस्थानके भेदसे दो प्रकारका है । स्वस्थान अल्पबहुत्व इसप्रकार है - अधः प्रवृत्तकरणके प्रथमसमय में प्रथमखंडका जघन्यपरिणाम सबसे स्तोक है, उससे वहीपर द्वितीयखण्डका जघन्यपरिणाम अनन्तगुणा है । उसमे वहींपर तीसरेखण्डका जघन्यपरिणाम अनन्तगुणा है । इसप्रकार वहीपर अन्तिम खण्डका जघन्यपरिरणाम अनन्तगुरणा है इसस्थानके प्राप्त होनेतक जानना चाहिये । इसप्रकार मात्र प्रथमसमयके परिणामखण्डों के जघन्यपरिणामस्थानोका अवलम्बन लेकर स्वस्थानअल्पबहुत्व किया । अब प्रथमसमयमे प्रथमखण्डका उत्कृष्टपरिणाम स्तोक है । उससे वहीपर दूसरे खन्डका उत्कृष्टपरिणाम अनन्तगुरणा है, उससे वहीपर तृतीयखण्डका उत्कृष्टपरिणाम अनन्तगुणा है । इसीप्रकार आगे भी अन्तिम खण्डका उत्कृष्टपरिणाम अनन्तगुणा है इसस्थानके प्राप्त होनेतक कथन करना चाहिए । इसप्रकार प्रथमसमयके सर्वंखण्डोके उत्कृष्टपरिणामोंका अवलम्बन लेकर स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन किया', ! इसीप्रकार दूसरे समयसे लेकर अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिमसमयतक प्रत्येकखण्डके प्रति प्राप्त जघन्य और उत्कृष्टपरिणामोंका स्वस्थान प्रल्पबहुत्व जानना चाहिए । इसके पश्चात् स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन समाप्त हुआ" ।
परस्थान अल्पबहुत्व इसप्रकार है- अधः प्रवृत्तकरण के प्रथमसमयमे जघन्यविशुद्धि सबसे स्तोक है, क्योकि इससे कम अन्य कोई जघन्यविशुद्धिस्थान अधःप्रवृत्तकरणमें नहीं है । उससे दूसरे समय में जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योकि प्रथम समय के जघन्यविशुद्धिस्थानसे षट्स्थानक्रमसे असंख्यात लोकमात्र विशुद्धिस्थानोंको उल्लघकर स्थित हुए द्वितीयखण्ड (४०) के जघन्यविशुद्धिस्थानका दूसरे समय मे जघन्यपना देखा जाता है; इसप्रकार अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त जानना चाहिए तथा अन्तर्मुहूर्त से ऊपर जाकर स्थित प्रथमनिर्वर्गुणाकाण्डक के अन्तिमसमय के प्राप्त होनेतक इस क्रमसे जघन्य विशुद्ध ही प्रतिसमय अनन्तगुणित क्रमसे कथन करना चाहिए । उससे प्रथमसमयकी (४२की.) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योंकि इसके अनन्तर पूर्व जो जघन्यविशुद्धि कही गई है वह अध प्रवृत्तकरणके अन्तिमखण्ड (४२) की जघन्यविशुद्धि है और यह उसे प्रतिमखड (४२) की उत्कृष्टविशुद्धि है जो उक्त जघन्यविशुद्धिसे छहस्थान क्रम वृद्धिरूप असख्यातलोकप्रमाण परिणामस्थानोंको उल्लंघकर अवस्थित है । इसलिए श्रुनन्तरपूर्वकी जघन्यविशुद्धि से यह उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी हो गई है । इस उत्कृष्ट
ज.ध. पु. . १२ पृ. २४४-४५ ।
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