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गाथा ५५ ] लब्धिसार
[ ४५ अन्तर्मुहूर्तकालतक समान स्थितिका बन्ध होनेके पश्चात् स्थिति घटकर बंधती है वह स्थिति भी अन्तर्मुहूर्तकालतक बधी है। इसप्रकार एकस्थितिबन्धापसरणका काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा गया है। स्थितिकांडकघात करनेमें भी अन्तर्मुहूर्तकाल लगता है, क्योकि अन्तर्मुहूर्तके प्रत्येकसमयमें एक-एक फाली (कुछद्रव्य) उत्कीर्ण की जाती है । अन्तिमफाली द्वारा शेषद्रव्य उत्कीरण ोने पर स्थितिघात होता है । अतः स्थितिकाडकघातमे जितनाकाल लगता है वह काल और स्थितिबन्धापसरणकाल दोनो तुल्य व अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। अपूर्वकरणमे प्रथमस्थितिबन्धापसरणकाल व स्थितिकाडकोत्कीरणकाल तुल्य है । द्वितीयादि स्थितिकांडक और स्थितिबधका काल परस्पर समान है, किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथमस्थितिकांडकके उत्कीरणकालसे और प्रथमस्थितिबन्धके कालसे द्वितीयादिकोका काल यथाक्रम विशेषहीन-विशेषहीन जानना चाहिए'।
अथानन्तर गुणश्रेणीके स्वरूपका निर्देश करते हैंगुणसेढीदीहत्तमपुव्वदुगादो दु साहियं होदि । गलिदवसेसे उदयावलिबाहिरदो दु णिक्खेवो ॥५५॥
अर्थ-गुणश्रेणीकी दीर्घता अर्थात् गुणश्रेणीआयाम अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणकालसे अधिक होता है वह गुणश्रेणीप्रआयाम गलितावशेष है तथा उदयावलीसे बाह्यनिक्षेप होता है।
विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख यह जीव अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे आयुकर्मके अतिरिक्त शेषकर्मोका गुणश्रेणिनिक्षेप प्रारम्भ कर देता है ।
शंका-आयुकर्मका गुणश्रेणिनिक्षेप क्यो नहीं करता है ?
समाधान-आयुकर्मका गुणश्रोणि निक्षेप स्वभावसे ही नही करता है, क्योकि इसमे गुणश्रोणि निक्षेपकी प्रवृत्ति असभव है ।
___ उस गुणश्रोणि निक्षेपका प्रमाण अपूर्वकरणकालसे और अनिवृत्तिकरणकालसे अर्थात् इन दोनो कालोसे विशेषअधिक है। यहां अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरणके समुदित कालका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है, उससे विशेषअधिक इस गुणश्रेणिनिक्षेपका आयाम है।
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ज.ध. पु. १२ पृ २६६ ।