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गाथा ३२ ]
लब्धिसार इन्ही शरीरोके बन्धन और सघात, छहसंस्थान, आहारकशरीरांगोपागके बिना दो अङ्गोपाङ्ग, छहसहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, चारोमानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगति, त्रस-स्थावरादि १० युगल
और निर्माण ये प्रकृतियां सत्कर्मरूप है । गोत्रकर्मकी नीच-उच्चगोत्ररूप दो प्रकृतिया सत्कर्मरूप है तथा अन्तरायकर्मकी पाचोप्रकृतिया सत्कर्मरूप है। इन प्रकृतियोका प्रकृतिसत्कर्म है, शेष प्रकृतियोका नही है ।
शंका-पहले उत्पन्न किये गये सम्यक्त्वके साथ आहारकशरीरका बन्धकरके पुर- मिथ्यात्वमे जाकर तत्प्रायोग्य पल्यके असख्यातवे भागप्रमाण कालके द्वारा उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके आहारकद्विकका सत्कर्म यहा क्यों नही उपलब्ध होता ?
समाधान-आहारकद्विकका सत्कर्म उपलब्ध नहीं होता, क्योकि आहारकशरीरकी उद्वलना किये बिना प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिकी योग्यता नही होती। वेदकसम्यक्त्वके योग्य कालसे आहारकशरीरका उद्वेलनाकाल स्तोक है ऐसा परमागमका उपदेश है।
___ अथानन्तर सत्कर्मप्रकृतियोंके स्थितिआदि सत्कर्मके कथन पूर्वक प्रायोग्यतालब्धिका उपसंहार करते हैं
अजहण्णमणुक्कस्सं ठिदीतियं होदि सत्तपयडीणं । . एवं पयडिचउक्कं बंधादिसु होदि पत्तेयं ॥३२॥
अर्थ-उक्त सत्त्वप्रकृतियोका स्थितित्रिक (स्थिति-अनुभाग-प्रदेश) अजघन्यअंनुत्कृष्टं होता है । बन्धादि (बन्ध-उदय-उदीरणा) प्रत्येकमे इसीप्रकार प्रकृतिचतुष्क (प्रकृति-स्थिति-अंनुभाग-प्रदेश) लगा लेना चाहिए। . .
विशेषार्थ-आयुकर्मके अतिरिक्त इन्ही उक्त प्रकृतियोका स्थिति-सत्कर्म अंत:कोडाकोडीसागर होता है | आयुकर्मका तत्प्रायोग्य स्थितिसत्कर्म होता है। पाचज्ञानावरण, नौदर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्वे, १६ कषाय, नवनोकषाय, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, नरकगति, तिर्यचगति, एकेन्द्रियादि चारजाति, पाचसस्थान, पाचसहनन, अप्रशस्तवर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी, तियंचगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त
१. ज. ध पु. १२ पृ. २०७-२०८-२०६ । गो. क. गाथा ६१४-१५। .