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२८ ] लन्धिसार
[ गाथा ३३ विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दु स्वर, अनादेय, अयश कीति, नीत्रगोत्र और पांचअन्तराय इन अप्रशस्तप्रकृतियोका द्विस्थानीय (लता-बारु या निम्ब-कांजोर) अनुभागसत्कर्म होता है । सातावेदनीय, मनुष्यगति, देवगनि. पचेन्द्रियजाति, ओदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर तथा उन्हीके बन्धन और संघात, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिकशरीरागोपाग, वैक्रियिकगरीरागोपाग, वज्रर्पभनाराचसहनन, प्रशस्तवर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक गरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, यश कीति, निर्माण, उच्चगोत्र इन प्रास्तप्रकृतियोका चतु स्थानीयअनुभागसत्कर्म होता है ।
जिन प्रकृतियोका सत्कर्म है, उनका अजघन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है । अब क्रमप्राप्त करणलब्धिको कहते हैंतत्तो अभव्वजोगं परिणाम बोलिऊण भन्बो हु । करणं करेदि कमसो अधापवत्तं अपुवमणियि ॥३३॥
अर्थ-उसके पश्चात् अर्थात् प्रायोग्यलब्धिके पश्चात् अभव्यके योग्य परिणामोको उल्लघकर भव्यजीव क्रमश. अध.प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणको करता है।
विशेषार्थ-गुरुपदेशके वलसे अथवा उसके विना भी अभव्यजीवोके योग्यविशुद्धियोको व्यतीत करके भव्यजीवोके योग्य अब प्रवृत्तकरण सजावाली विशुद्धिमें मन्त्राजीव परिणत होता है । जिस परिणामविशेषके द्वारा दर्शनमोहका उपशमादिरूप विवक्षितभाव उत्पन्न किया जाता है वह विशेषपरिणाम करण कहा जाता है ।
शंका-परिणामोकी 'करण' यह सज्ञा कैसे है ?
समाधान-यह कोई दोष नही है, क्योकि असि ( तलवार ) और वासि (वमूला) के नमान साधकतमभावकी विवक्षामें परिणामोके करणपना पाया जाता है । १. पु. १२ १.२०६-२१० ।
. प.६५१३।६ पु. १५ १८१ ।